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दूर वो हो जाते हैं

सरफ़राज़ हुसैन ‘फ़राज़’
मुरादाबाद (उत्तरप्रदेश)
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लोग जो अकसर ख़ारों से हो जाते हैं।
दूर वो दिल के तारों से हो जाते हैं।

आते हैं ‘जब अपनी ज़िद पर’ तो लोगों,
दस्ते क़लम हथियारों से हो जाते हैं।

नक़्श ‘वो तह़रीरें हो जाती हैं ग़म’ की,
चेहरे भी ‘अख़बारों से हो’ जाते हैं।

अ़ज़्म जवाँ गर रक्खे अपना ‘इन्साँ तो,
तूफ़ाँ भी पतवारों ‘से हो जाते हैं।

रोते हैं सर अपना पकड़ कर वो मुफ़लिस,
जिनके ‘चलन ज़र्दारों से हो जाते हैं।

लहजा बदल कर बात करे है जब कोई,
जुमले भी तलवारों से हो जाते हैं।

इल्म से जिनका लेना-देना कोई नहीं,
दूर वही दस्तारों से हो जाते हैं।

खार जिगर ‘में चुभते रहते हैं’ जिनके,
फूल ‘वो सब अंगारों’ से हो जाते हैं।

यह ही ख़ूबी है बस अपनी यार ‘फ़राज़’,
ग़ैरों ‘में भी यारों’ से हो जाते हैं॥

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