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शीर्षक-मनचली हवा बसंती

ऋतुएं तो आएं-जाएं पर,
बसंत की बात निराली
कंपकंपाती ठंड में लगे,
चमचमाती धूप प्यारी।

इंद्रधनुषी छटा बिखेरे,
फूल खिले, क्यारी-क्यारी
खेत कानन सब हरे हुए,
हँस रही है सृष्टि सारी।

कलरव करते विहग वृन्द,
मृदु रस कानों में घोले
अमवा डाली बैठी कोयल,
प्रीत की बोली बोले।

सर्र-सर्र, सर्र-सर्र हवा चले,
कलियों का घूँघट खोले
चली झुलाती आम का मंजर,
कभी सरसों की डाल छू ले।

बड़ा मनोरम दृश्य है लगता,
खग तिनका चुग-चुग लाता
अपने चूजे की खातिर वह,
वृक्षों के कोटर को भरता।

लिपटकर लताएँ पेड़ों से,
मनमोहिनी दृश्य उकेरे
मंद-मंद मुस्काए कलियाँ,
मधुर राग फागुनी छेड़े।

मनचली ये हवा बसंती,
है अपनी धुन में पागल।
चलत मुसाफिर को छेड़े,
सिर से उड़ाए आँचल॥

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