ऋतुएं तो आएं-जाएं पर,
बसंत की बात निराली
कंपकंपाती ठंड में लगे,
चमचमाती धूप प्यारी।
इंद्रधनुषी छटा बिखेरे,
फूल खिले, क्यारी-क्यारी
खेत कानन सब हरे हुए,
हँस रही है सृष्टि सारी।
कलरव करते विहग वृन्द,
मृदु रस कानों में घोले
अमवा डाली बैठी कोयल,
प्रीत की बोली बोले।
सर्र-सर्र, सर्र-सर्र हवा चले,
कलियों का घूँघट खोले
चली झुलाती आम का मंजर,
कभी सरसों की डाल छू ले।
बड़ा मनोरम दृश्य है लगता,
खग तिनका चुग-चुग लाता
अपने चूजे की खातिर वह,
वृक्षों के कोटर को भरता।
लिपटकर लताएँ पेड़ों से,
मनमोहिनी दृश्य उकेरे
मंद-मंद मुस्काए कलियाँ,
मधुर राग फागुनी छेड़े।
मनचली ये हवा बसंती,
है अपनी धुन में पागल।
चलत मुसाफिर को छेड़े,
सिर से उड़ाए आँचल॥