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सकारात्मक सोच से संकल्पों को बुनें

ललित गर्ग
दिल्ली

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कोरोना महासंकट से उबरते हुए हमें एक नयी जीवनशैली विकसित करनी होगी,जिसमें नकारात्मकता,अवसाद और तनाव के अंधेरों को हटाकर जीवन को खुशियों के संकल्पों से भरना होगा। ऐसा करना कोई बहुत कठिन काम नहीं,बशर्ते कि हम जिंदगी की ओर एक विश्वास भरा कदम उठाने के लिए तैयार हों। डेन हेरिस एक सवाल पूछते हैं कि,जब ‘खुशी हम सबकी जरूरत है और जिम्मेदारी भी तो क्यों हमारी यह जरूरत पूरी नहीं हो पा रही और क्या वजह है कि हम दुनिया को खुशियों से भर देने की जिम्मेदारी ठीक तरह से नहीं निभा पा रहे हैं ?’ इस सवाल के बहुत से उत्तर हो सकते हैं,लेकिन हेरिस के मुताबिक ‘इसका मूल कारण है हमारे भीतर छिपा डर। यह डर ही हमारे आस-पास अवसाद व अविश्वास रचता है और हमें दु:ख की सीलन से गंधाते अंधेरों में खींच ले जाता है।’ भयभीत एवं डरा हुआ इंसान हर वक्त अपने आपको असुरक्षित-सा महसूस करता है। डर उनको अंधेरे में जीना सिखा देता है। जीवन की विडम्बना यह है कि,हम अपनी हर अनगढ़ता,हर अपूर्णता के लिए दुनिया को जिम्मेवार ठहराते हैं,जबकि हमें इसके कारणों को स्वयं में खोजना चाहिए। कुछ लोग भाग्यभरोसे हाथ-पर-हाथ धरे विशिष्ट अवसर की प्रतीक्षा में रहते हैं। वे लोग भाग्यवादी एवं सुविधावादी होते हैं,ऐसे लोग कुंठित तो होते ही है,जड़ भी होते हैं। कल्पना और प्रतीक्षा में वे अपना समय व्यर्थ गंवा देते हैं। किसी शायर ने कहा भी है कितू इंकलाब की आमद का इंतजार न कर,जो हो सके तो अभी इंकलाब पैदा कर। अपने हालात के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराने का कोई मतलब नहीं होता।
सफलता और संघर्ष,आशा और निराशा,हर्ष और विषाद साथ-साथ चलते हैं। चुनौतियां केवल बुलंदियों को छूने की नहीं होती,खुद को वहां बनाए रखने की भी होती है। ठीक है कि एक काम करते-करते हम उसमें कुशल हो जाते हैं। उसे करना आसान हो जाता है,पर वही करते रह जाना,हमें अपने ही बनाए सुविधा के घेरे में कैद कर लेता है। रोम के महान दार्शनिक सेनेका कहते हैं,‘कठिन रास्ते ही हमें ऊंचाइयों तक ले जाते हैं।’ प्रश्न है कि इन कठिन रास्तों पर डग भरने एवं कुछ अनूठा करने का साहसिक प्रयत्न कोई शुरु करे,मगर प्रश्न तो यह भी है कि अंधेरों से संघर्ष करने के लिए आगे आए कौन ?
बहुत कठिन है यह रोशनी का सफर तय करना। सबके अंधेरों को समेटने के लिए कहां कौन आगे आते हैं,जबकि यहां तो हर कोई खुद को उजालने की स्वार्थी आकांक्षा में न जाने कितनों के जीवन की रोशनी छीन लेते हैं। हम समय और स्थितियों की बात भी करते हैं और अपने लिए छूट और माफी भी चाहते हैं,लेकिन जब गलतियां दूसरों की होती है ? ऐसे में ईमानदार प्रयत्नों का सफर कैसे बढ़े आगे ? जब शुरुआत में ही लगने लगे कि,जो काम मैं अब तक नहीं कर सका,भला दूसरा कैसे कर सकें ? कितना बौना चिंतन है आदमी के मन का कि मैं तो बुरा हूँ ही,पर दूसरा भी कोई अच्छा न बने।
जब हम कुछ करने की ठानते हैं तो सफलता ही मिले,यह जरूरी नहीं। कई बार सब करने पर भी निराशा मिलती है। तब हम अपनी ही सोच और क्षमताओं पर संदेह करने लगते हैं। लेखिका एलेक्जेंड्रा फ्रेन्जन कहती हैं,‘अगर दिल धड़क रहा है,फेफड़े साँस ले रहे हैं और आप जिंदा हैं..तो कोई भी भला,रचनात्मक और खुशी देने वाला काम करने में देरी नहीं हुई है।’

भगवान महावीर का संदेश था कि,हमारे स्वीकृत उद्देश्यों के प्रति आस्था,समर्पण और दृढ़ निश्चय जुड़ा रहे। पुरुषार्थ के हाथों भाग्य बदलने का गहरा आत्मविश्वास सुरक्षा पाएं। एक के लिए सब,सबके लिए एक की चेतना जागे। साहस एवं आत्म विश्वास की एक किरण कभी पूरा सूरज नहीं बनती। जिसे एक किरण मिल जाती है,वह संपूर्ण सूरज बनने की दिशा में प्रस्थान कर देता है।

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