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नारी वो भी वृद्धा

डॉ.अर्चना मिश्रा शुक्ला
कानपुर (उत्तरप्रदेश)
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जब अन्तिम चरण पहुंचती है,
वृद्धा, काया वह शक्तिहीन,
मन की फिर बात न होती है,
न सुदृढ़ सहारा उसका हो,
जहाँ प्रेम समर्पण वार दिए
सौंपा ना था सब छीन लिया,
मेरी पाई-पाई पर अब
अपने सपने पूरे करते।
मैं शिथिल अशक्त पड़ी जग में
नैनों में आँसू सूख रहे,
जो अम्मा कह सौ लेती थी
पेंशन पूरी पी जाती है,
यह वही घरौंदा मेरा है
जिसमें मेरी ही बजती थी।
आशाएँ सब छूट गई हैं,
दूर क्षितिज पर जाना है
नैनों ने सच अब देख लिया,
अब चाह नही मेरे जीवन,
जो मैंने समझा झूठा था
धन हाथ लगा सब बदल गया।
अब मैं बस सब पर भारी हूँ,
वृद्धा हूँ मैं बस भारी हूँ।
मैं नारी हूँ बेचारी हूँ,
अन्तिम पड़ाव में भारी हूँ॥

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