राजबाला शर्मा ‘दीप’
अजमेर(राजस्थान)
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“इन्सान भी क्या खूब है ? दिन-रात तो ढेर सारे पाप करता है और सुबह गंगा में एक डुबकी लगाकर सारे पाप धो लेता है तथा पुण्य कमा लेता है,पर दादा! क्या सच में ऐसा होता है ?”
“न न पगले! तू इंसान बनने की कोशिश ना कर,उसकी तरह ना सोच, ना देख,यही तेरे लिए हितकर है। हमें बस अपना कर्म करना चाहिए,बाकी सब ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए वह जो करेगा,अच्छा करेगा।”
हरसिंगार का वह वृक्ष और उसके समीप में पड़ा पत्थर दोनों रात के समय जब घाट खाली होता तो परस्पर ढेर सारी बातें करते। दिन में तो कोलाहल रहता,मंदिर आने जाने वालों की भीड़, भगवान को नापते तोलते पुजारी,भीख मांगते भिखारी,पूजा का सामान बेचती दुकानें,ठेले वालों की आवाजें, तो दिन में तो एक-दूसरे को मौन भाव से देखते,रात के समय जब एकांत होता तो ढेर सारी बातें करते।
नदी की लहरों ने घाट के पास जहां पत्थरों का विशाल भंडार था,उन्हें गोलाकार का आकार दे दिया था। पावन नदी में स्नान करने के बाद कई भक्तजन उन पत्थरों में से किसी गोल पत्थर को घर ले जाकर उन्हें शालिग्राम मानकर घर में स्थापित कर देते तथा कुछ तुलसी के गमले में रखकर उनकी पूजा करते। घाट बहुत ज्यादा विस्तृत ना था। नदी चौड़ाई में ज्यादा गहराई में कम थी। स्नानार्थी एक तट से दूसरे तट तक आसानी से आते-जाते थे। घाट के बगल में पत्थरों के पास हरसिंगार का पेड़ था। उसके फूल झड़ते और भीनी-भीनी महक से सबको आकर्षित करते। पत्थरों के विशाल समूह में से एक पत्थर मिट्टी से सना रहता और उस पेड़ से कहता,-“दादा! तुम्हारे फूलों को सभी भक्तगण कोई मंदिर में चढ़ाता है तो कोई वेणी में सजाता है। तुम्हें सभी भक्तगण पूजते हैं,मेरी ओर तो कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता।” यह कहकर वह रुआंसा-सा हो गया।
हरसिंगार बोला,-“बेटे!उदास न हो। मैं देख रहा हूँ,तुम प्रतिदिन धूल अपने ऊपर मल लेते हो ताकि नंगे पैरों से आए भक्तगणों को तुम चोट ना पहुंचा सको। तुम अपनी साधना में लीन रहो। अच्छे का फल अच्छा होता है।”
पत्थर आश्वस्त होकर मुस्कुरा दिया और अपने कर्म में लीन रहने लगा। रोज धूल-धूसरित होकर रहता कि कहीं किसी के पैरों में ना चुभ जाऊं। ईश्वर से रोज प्रार्थना करता कि उसे इस धरा पर आने की सार्थकता दें।
एक दिन एक शिल्पी ने देखा एक पत्थर धूल से अटा पड़ा है मगर चमक रहा है। शिल्पी ने चमकीले पत्थर को उठाया,अपने घर लाकर सोचा चमकीले पत्थर पर भगवान की खूबसूरत आकृति उकेरुँ और किसी मंदिर में जाकर इससे प्रतिष्ठापित करूं। शिल्पी जब धीरे-धीरे पत्थर को तराशता तो उसे दर्द महसूस होता मगर अपने जीवन की सार्थकता के लिए वह सब- कुछ सह कर भी खुश रहता। शिल्पी ने उस पत्थर को तराशा,निखारा और खूबसूरत प्रतिमा का रूप प्रदान किया। पत्थर अपने इस अवतार से बेहद प्रसन्न था। एक दिन शुभ मुहूर्त देखकर मूर्ति को मंदिर में आसीन किया। मूर्ति बनकर पत्थर प्रतिदिन अपने हरसिंगार दादा का स्मरण करता कि,वह दिन कब आएगा जब दादा मुझे इस रूप में देखकर खुश होंगे।
उसका इंतजार रंग लाया। कुछ दिन बाद उसने देखा,पंडित जी थाल में हरसिंगार के फूलों की माला लिए चले आ रहे हैं। पंडित जी ने बड़ी श्रद्धा के साथ वह माला मूर्ति के गले में डाल दी। मूर्ति की आँखें छलक उठीं,आँखों से अविरल धारा बह निकली। दोनों एक- दूसरे के गले से लग कर आनंदित हो रहे थे। पत्थर को जीवन की सार्थकता मिल गई थी।
परिचय–राजबाला शर्मा का साहित्यिक उपनाम-दीप है। १४ सितम्बर १९५२ को भरतपुर (राज.)में जन्मीं राजबाला शर्मा का वर्तमान बसेरा अजमेर (राजस्थान)में है। स्थाई रुप से अजमेर निवासी दीप को भाषा ज्ञान-हिंदी एवं बृज का है। कार्यक्षेत्र-गृहिणी का है। इनकी लेखन विधा-कविता,कहानी, गज़ल है। माँ और इंतजार-साझा पुस्तक आपके खाते में है। लेखनी का उद्देश्य-जन जागरण तथा आत्मसंतुष्टि है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-शरदचंद्र, प्रेमचंद्र और नागार्जुन हैं। आपके लिए प्रेरणा पुंज-विवेकानंद जी हैं। सबके लिए संदेश-‘सत्यमेव जयते’ का है।