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तुम्हारा शहर

तालिब मंसूरी
दिल्ली
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काव्य संग्रह हम और तुम से


तुम्हारा ही शहर है,
और मुझे तुम ही अनजाने लगते हो।

महफिल भी ये है तुम्हारी,
तुम ही बेगाने से अब लगते हो।

लाख गलतियाँ थी सनम तुम्हारी तब भी मैं चुप था,
आते हो मिलने देरी से फिर मुझे ही समझाने लगते हो।

पूछा है जब भी मैंने,कि कितना प्यार है तुम्हें मुझसे ?
हर बार बातों ही बातों में बस उलझाने लगते हो।

आज तक मैं तुमको समझ ही नहीं पाया क्या हो तुम,
आशिकों के लिए तुम चलते-फिरते मयखाने लगते हो।

ना जाने कौन-सी बात है यार उसमें,ये रब जाने,
सच तो ये है ‘तालिब’ उसके लिए तुम दीवाने लगते हो॥

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