राधा गोयल
नई दिल्ली
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गीता का एक श्लोक है-
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे- युगे॥”
अर्थात जब-जब इस पृथ्वी पर अनाचार और अत्याचार हद से ज्यादा बढ़ जाता है, सज्जन लोगों का जीना दुश्वार हो जाता है, चारों तरफ अधर्म का बोलबाला हो जाता है, तब-तब धर्म की स्थापना के लिए मैं इस पृथ्वी पर जन्म लेता हूँ। हमारी पौराणिक पुस्तकों में ऐसे कितने ही आख्यान हैं, जब ईश्वर को दुष्टों का संहार करने के लिए, सज्जनों को न्याय दिलाने के लिए पृथ्वी पर अवतरित होना पड़ा। सबसे बड़ा उदाहरण श्री कृष्ण का है। उनके समय में इस धरा पर बहुत से ऐसे अन्यायी शासकों का दबदबा और आतंक था, कि लोग उनके डर के कारण कुछ बोल नहीं पाते थे। उनके अत्याचारों को चुपचाप सहते रहते थे। कृष्ण ने साम, दाम, दंड, भेद से ऐसे दुष्टों का संहार किया। उन्होंने बताया “ठीक है कि हमेशा सत्य बोलना चाहिए; लेकिन कभी-कभी अधर्म से लड़ने के लिए झूठ बोलना भी आवश्यक हो जाता है। सभी से सज्जनता पूर्ण व्यवहार करना चाहिए, लेकिन जो सज्जनता को… तुम्हारी शांतिप्रियता को… तुम्हारी कायरता समझ ले, तो उसे उसी की भाषा में समझाना बहुत जरूरी होता है।” क्योंकि “क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो। उसको क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत सरल हो।”
“शठे शाठ्यम समाचरेत” यानी
दुष्ट व्यक्ति सज्जन की सज्जनता को उसकी कमजोरी समझ बैठता है, इसलिए शठ को शठ की भाषा में ही उत्तर देना बहुत आवश्यक हो जाता है। उन्होंने यह भी कहा कि युद्ध नहीं होना चाहिए। युद्ध आखिरी विकल्प होना चाहिए, लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि धर्म की स्थापना के लिए युद्ध करना अनिवार्य हो जाता है। उसे युद्ध नहीं… धर्मयुद्ध कहा जाता है। जो समाज… जो राजा… एक महारानी की इज्जत से खिलवाड़ करे, उस राज्य में, उस समाज में किसी साधारण स्त्री की क्या दशा होगी ?
युद्ध ना हो, क्योंकि युद्ध में दोनों तरफ के लोग मरते हैं। बच जाते हैं बूढ़े, बच्चे और विलाप करती माताएं और विधवा स्त्रियाँ। इसी लिए कृष्ण ने कर्ण को भी युद्ध के भयंकर परिणाम को समझाया कि युद्ध का अंजाम क्या होगा। कृष्ण मैत्री का प्रस्ताव लेकर धृतराष्ट्र के पास गए थे और पांडवों के लिए केवल ५ राज्य माँगे थे, लेकिन दुर्योधन बिना युद्ध किए सुई
बराबर भूमि भी देने को तैयार नहीं था। तब युद्ध अनिवार्य हो गया था। युद्ध के लिए कुछ नियम बनाए गए थे, लेकिन सबसे पहले कौरवों ने ही उनको तोड़ा। यदि सामने वाला छल कर रहा है, तो उसके साथ छल करने में कोई बुराई नहीं है। उसको उसी की भाषा में जवाब देना बहुत जरूरी है। कृष्ण ने अपनी बुद्धि का, युक्ति का कई जगह प्रयोग किया। शठ को शठतापूर्वक मारा।
भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य कौरवों की ओर से लड़ रहे थे। क्या इसलिए कि उन्होंने धृतराष्ट्र का नमक खाया था ? उस नमक का फर्ज अदा कर रहे थे ? भीष्म नहीं मारे जाते तो पाण्डव युद्ध हार जाते और देश में फिर से अत्याचारियों और अधर्मियों का राज्य कायम हो जाता। कृष्ण ने बड़ी नीति से भीष्म से उनके मरने का उपाय पूछा। भीष्म को तो इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। कृष्ण ने जब यह सुना कि भीष्म किसी स्त्री पर शस्त्र नहीं चलाएंगे, तब उन्होंने शिखंडी को अर्जुन के आगे खड़ा कर दिया। शिखंडी आगे था, इसलिए भीष्म शस्त्र नहीं चला पाए और अनगिनत घाव खाकर बाण शैय्या पर रहे।
उनके बाद गुरु द्रोण कौरवों के सेनापति बने। उन्होंने लाखों महारथियों को मौत के घाट उतार दिया। तब श्री कृष्ण को फिर से छल का सहारा लेना पड़ा। कृष्ण जानते थे कि द्रोण सच्चाई जानने के लिए युधिष्ठिर के पास अवश्य आएंगे। उन्होंने युधिष्ठिर को कहा- “बड़े भैया! गुरु द्रोण आपसे पूछने आएंगे कि क्या अश्वत्थामा मारा गया ? तो आप यह कहना कि हाँ मारा गया, लेकिन यह नहीं मालूम कि वह आपका पुत्र था या हाथी ?”
उन्हें मालूम था यदि युधिष्ठिर ने पूरा वाक्य बोल दिया तो द्रोण अपने पुत्र की तलाश करेंगे। इसलिए युधिष्ठिर के ‘अश्वत्थामा हतो’ कहते ही कृष्ण ने ढोल-नगाड़े बजवा दिए, जिसके शोर में द्रोण अपने अस्त्र-शस्त्र त्याग कर भूमि पर बैठ गए। द्रोण के इस व्यवहार से समझ आता है कि अपना पुत्र बहुत प्यारा था। क्या पांडव उनके कुछ नहीं लगते थे ? जिनकी पत्नी की लाज भरी सभा में लूट ली गई हो, इसके बावजूद भी वो अधर्मियों के साथ मिलकर पांडवों के विरुद्ध युद्ध कर रहे थे। लाखों माता- पिता की बुढ़ापे की लाठी छीन ली थी तो अपने पुत्र की मौत पर इतना मातम…???
कृष्ण का मानना था ‘अहिंसा परमो धर्म:, धर्म हिंसा तथैव च’
यदि ६ महारथी मिलकर अकेले निहत्थे अभिमन्यु को मार सकते हैं तो वह कौन सा धर्म था, जबकि अभिमन्यु सभी का कुछ ना कुछ लगता था। इसलिए जब अर्जुन निहत्थे कर्ण से लड़ाई करने में हिचकिचाया, तो कृष्ण ने अभिमन्यु वध की याद दिलाई। दुर्योधन से गदा युद्ध में भीम को द्रीपदी के चीरहरण के समय की गई उसकी प्रतिज्ञा याद दिलाई।
तात्पर्य यह है कि धर्म की रक्षा के लिए कभी-कभी अधर्म भी करना पड़ता है। कीचड़ साफ करने के लिए कीचड़ में भी घुसना पड़ता है।