डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे (महाराष्ट्र)
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आषाढ़ प्रथम दिवस….
आषाढ़ मास के प्रथम दिवस को ‘कालिदास दिन’ मनाया जाता है। कालिदास जी संस्कृत भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि तथा नाटककार हैं। दूसरी-पाँचवी सदी में गुप्त साम्राज्य काल के अनुपमेय साहित्यकार के रूप में उन्हें गौरवान्वित किया गया है। उनकी काव्य प्रतिभा के अनुरूप उन्हें दी गई ‘कवि कुलगुरु’ उपाधि स्वयं ही अलंकृत हो गई है। संस्कृत साहित्य की रत्नमाला में उनका साहित्य उस माला के मध्यभाग में दमकते कौस्तुभ मणि जैसा प्रतीत होता है। पाश्चात्य और भारतीय, प्राचीन तथा अर्वाचीन विद्वानों के मतानुसार कालिदास जी जगमान्य, सर्वश्रेष्ठ और एकमेव द्वितीय कवि हैं। इस साक्षात् सरस्वती पुत्र के बहुमुखी एवं बहुआयामी प्रज्ञा, प्रतिभा और मेधावी व्यक्तित्व का मैं नाचीज़ बखान करूँ तो कैसे करूँ ! वास्तव में उनके चरणों में लीन होते हुए ही ये शब्दभाव सुमनांजलि उन्हें अर्पण करने का साहस कर रही हूँ।
मित्रों पाश्चात्य साहित्यकार कहते हैं, “कालिदासजी भारत के शेक्सपियर हैं।” मैं तो दृढ़तापूर्वक ऐसा मानती हूँ कि, इसमें गौरव कालिदास जी का है ही नहीं, क्योंकि वे सर्वकालीन, सर्वव्यापी तथा सर्वगुणातीत ऐसे अत्युच्य गौरव-शिखर पर पहले से ही आसीन हैं। इसमें यथार्थ गौरव शेक्सपियर का है। सोचिए उसकी तुलना किसके साथ की जा रही है, तो कालिदास जी से। इनके ‘मेघदूत’ (खंडकाव्य) को विरह के शाश्वत तथा जीवन्त रूप में देखा जाता है। बहुत से विशेषज्ञों का मानना है कि, कल्पना के उच्चतम मानकों का ध्यान रखते हुए भी बिना अनुभव के इस कल्पनाशील दूतकाव्य कविता की रचना करना बिलकुल असंभव है, साथ ही कालिदास जी ने जिन विभिन्न स्थानों और उनके शहरों का सटीक तथा विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, वह भी तब तक संभव नहीं है, जब तक कि उन स्थानों पर उनका वास्तव्य नहीं रहा होगा। खण्डकाव्यों में शीर्ष स्थान से सम्मानित खंडकाव्य ‘मेघदूत’ का काव्यानंद यानि स्वर्ग का सुमधुर यक्षगान ही समझिए! ऐसा माना जाता है कि, महाकवि ने ‘मेघदूत’ को आषाढ़ मास के प्रथम दिन रामगिरी पर्वत पर (वर्तमान स्थान-रामटेक, महाराष्ट्र) लिखना प्रारंभ किया।
आषाढ़ मास के प्रथम दिन कालिदास जी ने जब आसमान में संचार करने वाले कृष्णमेघ देखे, तब उन्होंने अपने अद्भुत कल्पनाविलास का एक खंडकाव्य में रूपांतर किया। यही है उनकी अनन्य कृति ‘मेघदूत।’ इस विरह गान के दूसरे ही श्लोक के ३ शब्द हैं, ‘आषाढस्य प्रथम दिवसे।’ यौवन की सहज-सुंदर तारुण्य-सुलभ तरल भावना और प्रियतमा का विरह, इन प्रकाश और तिमिर के संधिकाल का शब्दबद्ध रूप हमें भावना विवश कर देता है। इसकी कहानी संक्षिप्त में कहूँ तो, अलका नगरी में यक्षगणों का प्रमुख एक यक्ष कुबेर को महादेवजी की पूजा हेतु सुबह प्रफुल्लित कमल पुष्प देने का कार्य हर दिन करता है। नवपरिणीत पत्नी के साथ समय बिताने हेतु वह यक्ष रात्रि में ही अधखिले कमल पुष्पों को तोड़कर रखता है। दूसरे दिन सुबह पूजा करते समय कमल पुष्प में रात्रि को बंदी बना एक भ्रमर कुबेर जी को डंक मारता है। इसलिए कुबेर जी क्रोधायमान होकर यक्ष को शाप देते हैं। फलस्वरूप उस यक्ष को अपनी पत्नी से अलग होना पड़ता है। इसी शाप वाणी से ‘मेघदूत’ की निर्मिति हुई। यक्ष को १ वर्ष के लिए रामगिरी पर अलका नगरी में रहनेवाली अपनी पत्नी से दूर रहने की सजा मिलती है। शाप के कारण उसकी सिद्धि का भी नाश होता है। इसी विरह व्यथा का यह ‘विप्रलंभ श्रंगार काव्य’ है। कालिदास जी की कल्पना की उड़ान द्वारा रचा गया यह प्रथम ‘दूत काव्य’ है। ‘सीता कुण्ड’ से पवित्र हुए रामगिरी पर्वत पर बैठकर अश्रुपूरित नेत्रों से यक्ष मेघ को सन्देश देता है। अब देखते हैं वह सुंदर श्लोक-
“तस्मिन्नद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्त: स कामी,
नीत्वा मासान्कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठ:।
आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं,
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।”
अर्थ: “अपनी प्रिय पत्नी के वियोग से दग्धपीड़ित और अत्यंत व्यथित रहने पर यक्ष की देह क्षीण हुई थी। मणिबंध (कलाई) का सुवर्णकंकण शिथिल होकर भूमि पर गिर जाने से उसका मणिबंध सूना-सूना दिख रहा था। आषाढ़ के प्रथम दिन यक्ष को एक कृष्णवर्णी मेघ नज़र आया। वह मेघ रामगिरी पर्वत के शिखर को आलिंगनबद्ध कर क्रीड़ा कर रहा था। मानों एकाध हाथी मिट्टी के टीले की मिटटी उखाड़ने का खेल कर रहा हो|”
‘आषाढस्य प्रथम दिवसे’ इस मंत्र के प्रणेता कालिदास जी की स्मृति को अभिवादन करने हेतु प्रत्येक वर्ष हम आषाढ़ महीने के प्रथम दिन (आषाढ शुक्ल प्रतिपदा) ‘कालिदास दिन’ मानते हैं। जिस रामगिरी पर्वत पर कालिदास जी को यह काव्य रचने की स्फूर्ति मिली, उसी कालिदास जी के स्मारक को लोग भेंट देते हैं। भारत में इसी दिन ‘कालिदास महोत्सव’ मनाया जाता है। गर्व की बात है कि, महाराष्ट्र का प्रथम ‘कवि कुलगुरु कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय’ रामटेक में स्थापित हुआ है।
आषाढ़ के प्रथम दिवस के उपलक्ष्य में महाकवि कालिदास जी के चरणों पर मेरे शब्दसुमन अर्पण करती हूँ। आप भी आषाढ़ माह की सजल वर्षा ऋतु का आनंद लीजिए।