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ग्रीष्म ऋतु में खोये हुए हैं हम..

पंकज त्रिवेदी
सुरेन्द्रनगर(गुजरात)

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निबंध……
ग्रीष्म की ऋतु अपनी चरमसीमा पर है। वृक्ष भी सूर्य की तपिश के सामने सीना तानकर खड़े होकर अपनी अहमियत सिद्ध करा रहे हैं। वो जानते हैं कि मेरी अटलता और अखंडितता मानवों के लिए प्रेरणा बन सकती है,और यह भी जानता है कि मेरी शीतलता का यह कसौटी काल है। वायुदेव कभी रीझकर प्यार से सहलाता है तो वह खुशी सिर्फ वृक्ष तक ही सीमित नहीं रहती,मगर वृक्ष की छाँव में बैठी गाय,अर्ध जागृत श्वान और मानवों के लिए आशीर्वाद भी बन जाता हैं। हम इंसान हैं यही सौभाग्य है,फिर भी हर पल हमें ‘इंसान’ होने की पुष्टि भी करनी पड़ती है। इस प्रक्रिया में से कितने सारे प्रश्नों की माला बन रही है ? लगता है कि हमें इंसानियत में श्रद्धा ही नहीं,शायद इसी कारण अंधश्रद्धा का अजगर हमें बार-बार भींच लेता है। विश्वास बहुत बड़ा सत्य है, फिर भी हम असत्य को स्वीकार जल्दी करते हैं। हमारा ऊपरी आकर्षण जीवन के सत्य तक पहुँचने के मार्ग को निरंतर अवरोधता रहता है।
ग्रीष्म की गर्मी में घर में घुसे रहने से उसकी सुंदरता की अनुभूति नहीं हो सकती। सूखी-बंजर धरती पर जाने से भी ग्रीष्म अप्रिय न लगे,उसी कारण से पलाश हमारी श्रद्धा को संभाल रहा है। गुलमोहर के केसरी फूलों के बीच हरी शाखाएं हमें तपिश से बचाती है। शहर के बाज़ार में चलते समय आलसी मूड में आराम फरमा रहे दुकानदार दिखते हैं। छोटे गाँवों से खरीददारी करने आते ग्रामजनों के चेहरे पर गर्मी से आकुलता उभरती है, तब गंदे फुटपाथ पर भी बैठ जाते हैं। ऐसे समय सफाईदार शहरीजनों की घृणाभरी नज़रें उन्हें आर-पार बींधती हैं। अनिवार्यता के कारण वाहनों पर सवार इंसानों की बेचैनी हमें भी हैरान करती है।
कहीं वृक्ष की छाँव में खड़े रहकर पसीना पोंछते समय ‘हाश’ का उदगार भी सुकून देता है। वृक्ष की यह महिमा हमें उनके जतन की भी प्रेरणा नहीं दे पाता। ऐसा क्यूं होता है ? शायद हमारी भावनाएं जरूरत के आधार पर ज्यादा है। आजकल लोग खुद को ‘प्रैक्टिकल’ कहकर अपनी छवि को अनजाने में संवेदनहीन दिखाते हैं। किसी से उधार मांगी चीजों का उपयोग करने की आदत ही हो गयी हैं जैसे…! वृक्ष के नीचे खड़े होकर जितनी जल्दी हम पसीना पोंछते हैं,उतनी ही जल्दी हम वृक्ष के समग्र अस्तित्व को ही भूल जाते हैं। जो लोग घर के कोने में घुसकर एयरकंडीशनर की साँस ले रहे हैं,उन्हें भला वृक्ष की महिमा गान करने का अधिकार ही कहाँ ? ऐसे सुखी इंसानों को आखिर में आयुर्वेद या निसर्गोपचार के उपचार केन्द्रों में दयनीय स्थिति में जाना पड़ता है। हमारी संस्कृति में वृक्ष की महिमा और ऋषियों की समानता का दर्जा मिला है,मगर हमारी कमनसीबी भी यही है कि आज के दौर में हम संतों पर भरोसा नहीं कर सकते हैं,क्योंकि आज के संतों में आम आदमी की अवस्था अकबंद दिखाई पड़ती है। इंसान को पिघलाकर शायद ही कोइ संत की पवित्रता और गरिमा को छूता है। एक में से दूसरी अवस्था में पहुँचने की इस प्रक्रिया में दोहरा जोख़िम होता है,जो धर्म और श्रद्धा के मार्ग में नहीं चल सकता। किसी एक स्वरूप को तो हमें पिघलाना ही पड़ेगा। आख़िर में जो पहचान मिले वो समाज की धरोहर बनाने की क्षमता रख सकती है।
किसान पो फटते (तड़के) ही काम पर लग जाते हैं,दोपहर को किसी वृक्ष की छाँव में खाने के बाद विश्राम करते हैं। शहर में अब तो वृक्ष ढूँढने पड़ते हैं। इससे बड़ी करुणा क्या होगी ? शहर की काली सड़कें और उस पर दौड़ते वाहनों ने हमारी ऑक्सीजन को हजम कर लिया है। जिन वाहनों की हमें अनिवार्यता दिखती है,वो ही हमारे जीवन को धीरे-धीरे ख़त्म कर रहे हैं। ज़िंदगी की आपा-धापी में हमें शांति से बैठकर सोचने की फुर्सत ही कहाँ ? हमारी कनपट्टी में जलन होने तक हम मोबाईल को छोड़ते नहीं। मोबाईल की रिंगटोन के बीच गर्मी की ढलती शाम में वृक्षों की डाल पर चहकते पंछियों को सुनने का समय ही कहाँ ? हमारे बच्चों के साथ बैठकर,हमारे ही बचपन की बात करने का रोमांच भी नहीं ! समझदार बच्चों को जीवन की रोमांचक बातें या पौराणिक कथाओं की जानकारी देने का समय हमें कहाँ ?
गर्मी के दिनों की शाम,घने वृक्ष की छाँव में बड़ी बहन अपनी सखियों के संग घर-घर का खेल खेलने में मशगूल हो,ऐसे समय छोटे भाई के हाथों में टूटा हुआ खिलौना देकर,साफ़ जगह पर छाँव में बिठाकर खेलती हो! छोटा भाई खिलौने से खेलकर थककर अचानक रोने लगे तब खेलने की उत्कंठा और उम्र की मुग्धता को किनारे छोड़कर मातृत्व की गंभीरता से अपने भाई को अपनी छाती से लगा लेती हैं। अपनी सखी को-“मुझे नहीं खेलना है,मेरा भाई रो रहा है।”- कहकर उसे वात्सल्य से फुसलाने लगे तब वो ही भाई बड़ा होकर अपनी बहन को कैसे संभालता है !
ग्रीष्म की तपिश में घर में घुसकर आराम से पढ़ने का मन भी नहीं होता। किसी से बात करने का मन भी नहीं। एसेंस वाले शरबतों के कारण सौंफ से बने शरबत या लू में प्याज़ खाने की याद आज किसे है ? बच्चों को सर पर बुखार ज्यादा होने से हाथ-पैरों में शुद्ध घी लगाने की सूझ आज की औरतों में कहाँ ? ग्रीष्म की शाम तो सुखकारी हॊती है। जीवन में दुखों के बीच आते सुख का मूल्य होता है। उसी तरह गर्मी के दिनों में लू में पसीने से नहाना, मिट्टी उड़ना और शाम ढले ठन्डे पानी का अभिषेक हमारी देह को पवित्रता बख्शता है,तब रोम-रोम में प्रवाह की भाँति चेतना फ़ैल जाती हैं। इसी फुर्ती के कारण सूर्य के प्रकोप का अस्त कितना मधुर बन जाता है! जीवन की धूप-छाँव को समझने के लिए शायद कुदरत ने ऋतुओं को प्रतीकात्मक रखा होगा। इंसानों को उत्सवों के रंगों से सजाया है। आज के समय में हमारा हृदय खिल जाए, ऐसे उत्सव कहाँ होते हैं ? उत्सव और जाति-पांति के नाम पर हम लड़ने लगे हैं। सच कहें तो ऋतुचक्र की गर्मी में नही,मगर हम तो जीवन की गर्मी में खो गए हैं, जैसे कि खुद से ही दूर होने लगे हैं।

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