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चारदीवारी में बेबस

डॉ. संजीदा खानम ‘शाहीन’
जोधपुर (राजस्थान)
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चारदीवारी कैद, पिंजरा या मर्यादित जीवन है ?
सुरक्षा की गारंटी है या कि सामाजिक बंधन है ?

कैद पंछी उन्मुक्त गगन में उड़ना भूल जाते हैं,
साँसें गिनते रहते हैं खाना-पीना भूल जाते हैं।

सोने के पिंजरे में भी कैद नहीं भाती,
आजादी जीवो में जीवन की चाहत लाती।

तन्हाई, जुदाई, कैद जीवन की हत्यारी है,
आजादी सबको अपनी जान से ज्यादा प्यारी है।

चारदीवारी गला घोंटती अरमानों का,
जीवन नरक हो जाता सब इंसानों का।

कैद के तम में फंसकर जीवन सदा रोता है।
तिल-तिल मरता जीव, मन पीड़ित होता है।

अब चारदीवारी, परम्परा टूटनी चाहिए,
आशा की एक किरण फूटनी चाहिए।

घोर अंधेरा पाकर जीवन नीरस होता है,
‘शाहीन’ कैद में सब कोई बेबस होता है॥