डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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नया सबेरा, नयी आशाएँ, नए संकल्प…
३१ दिसंबर की सर्द रात है। २ दोस्त अलाव के पास बैठे नए साल का इंतज़ार कर रहे हैं। हाड़ कंपा देने वाली सर्दी। उनके जमे हुए गलों को गर्म करने के लिए अलाव के अलावा पेग के घूँट ही थे।
एक दोस्त अपने गले की ‘वोकल कार्ड’ पर सुरूर की तान छेड़ते हुए बोला, “यार, नया साल आ रहा है। इसका स्वागत नहीं करोगे तो नाराज़ हो जाएगा स्साला।”
दूसरा हँसते हुए बोला, “यार, नया साल तो आ ही जाएगा, लेकिन ये बता, पहचानेंगे कैसे ? क्या फर्क है पिछले साल और इस साल में ?
पहले भी धोखा खा चुके हैं यार। हर बार ‘नया’ बोलकर पुराना ही चिपका दिया जाता है। कुछ भी तो नया नहीं था।
बिल्कुल, वो फ़िल्म ‘रन’ में देखा ना, कैसे ‘छोटी गंगा’ बोल के नाले में कुदवा दिया।
सलमान खान इस बार भी कुंवारा ही है। पाकिस्तान इस बार भी अमेरिका के आगे कटोरा लिए घूम रहा है। गरीबी, महंगाई, अत्याचार- सब वैसा का वैसा ही है।”
पहला दोस्त चुटकी लेते हुए बोला, “यार, तू तो कुछ ज़्यादा ही अंतरराष्ट्रीय चिंतक बन गया है। स्साला तेरे दिमाग में २-४ पेग क्या चढ़े, तेरी तो दिमाग की बत्ती जल जाती है।”
“अरे भाई, कुछ रेज़ॉल्यूशन तो ले ले। सब स्वागत ऐसे ही करते हैं भाई..। नया साल आए तो कोई रेज़ॉल्यूशन-वेज़ॉल्यूशन की बात हो।
हम जैसे आम आदमी को नए साल में यही तो मिलता है, वरना सालभर तो ये रेज़ॉल्यूशन की बातें संसद, टी.वी., अख़बारों में ही पढ़ने-सुनने को मिलती हैं। जैसे गर्लफ्रेंड को चाँद-तारे तोड़ लाने का वादा करना होता है, वैसे ही इस नए साल को रेज़ॉल्यूशन की माला पहनानी पड़ती है, वरना आता ही नहीं स्साला।”
दूसरा बोला, “रेज़ॉल्यूशन भी बड़ी कमाल की चीज़ है यार… नेताओं की जेब में पड़ी रहती है। संसद से लेकर राष्ट्रपति भवन तक चक्कर काटती रहती है। संसद में उठापटक, बायकॉट, प्रदर्शन, मुद्दे- सब इन रेज़ॉल्यूशन के चारों ओर चक्कर लगाते हैं।
अपनी पार्टी की थाली में ये देसी घी-सा लगता है, और विरोधी पार्टी की थाली में जाते ही ज़हर।”
पहला दोस्त हँसते हुए, “रेज़ॉल्यूशन एकदम फूल जैसा होता है। स्वागत में बरसाए गए फूल कितने दिन टिकते हैं ? वैसे ही ये रेज़ॉल्यूशन भी। २ दिन में बासी हो जाते हैं। तभी तो २ दिन बाद फेंकना पड़ता है यार, बास आने लगती है।”
दूसरा दोस्त, “रेज़ॉल्यूशन बनाए ही इसी लिए जाते हैं कि तोड़े जा सकें। अगर बनाएंगे नहीं, तो तोड़ेंगे क्या?”
पहला, “यार, इस बार कुछ छोड़ने-वोड़ने का नहीं। इस बार एक नया धंधा शुरू करेंगे। क्या कहता है, बाबागिरी का धंधा करें ? भगवान बेचने का धंधा सुपर है रे। ट्रेंडिंग में है।”
दूसरा, “यार, ये क्या बहकी-बहकी बात कर रहा है, अधार्मिक बातें ?”
“यार… क्यों इमोशनल होता है रे ? ज़्यादा चढ़ गई तेरे को। अरे, सब कुछ तो बिक रहा है-धर्म, ईमान, नैतिकता। भगवान बेचने में क्या बुराई है? जीएसटी भी नहीं लगेगा। जैसे चाहो, वैसा भगवान बनाकर बेच दो। लोगों की डिमांड के हिसाब से।”
दूसरा, “यार, ये नया साल के आने पर रेज़ॉल्यूशन की दीवार क्यों खड़ी कर देते हैं ? साल को साल भर चलना ही मुश्किल हो जाता है। तभी तो ये रेजोलुशन की दीवारें गिरानी पड़ती हैं, और फिर देखो कैसे दौड़ता है नया साल।”
पहला दोस्त:”यार, जमाना था… स्साला हर बार यूनिक-सा रेज़ॉल्यूशन लेते थे। एक से बढ़कर एक। रेज़ॉल्यूशन लिया कि वजन कम करेंगे, सुबह जल्दी उठेंगे, या दारू छोड़ देंगे, लेकिन पहले ही दिन लगता है जैसे साल कितना धीमा चल रहा है रे… एक दिन भी सालभर के माफिक लगता था।फिर… हम क्या करें… मजबूरी में छोड़ना पड़ता था। हमने तो कहा-‘भाई, तुम टेंशन मत लो साल… हमारा क्या है, हम रेज़ॉल्यूशन त्याग देंगे। इतना तो कर सकते हैं तुम्हारे लिए। बस तुम तो सरपट दौड़ो यार।”
अंतिम पेग खत्म होने को था, प्लेट में रखे चने भी खत्म होने को आ गए। बाहर डी.जे. की धुन तेज हो गई। हो-हल्ला बढ़ गया। लोग पेग हाथ में लिए बाहर आ गए।
आकाश में आतिशबाजियों की छटा बिखरने लगी।
दूसरा दोस्त:”यार, जल्दी करो… नया साल आने वाला है। ऐसा न हो कि हम पीछे रह जाएँ। इस बार ऐसा रेज़ॉल्यूशन लेंगे, जो सालभर चलेगा। चलो, आज के बाद दारू को हाथ नहीं लगाएंगे।”
दोनों दोस्तों ने फैसला किया और बिना हाथ लगाए सीधे मुँह से गिलास सटाकर दारू पीने लगे।
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