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नारी की यात्रा और सफलता

रत्ना बापुली
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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नारी मर्यादा बलिदान और हौंसले की मूरत…

‘नारी’ शब्द की व्याख्या अनेक लोगों ने अपने-अपने से की है, अतः जिस शब्द की उत्पत्ति ही अनेक विसंगतियों से हुई है, उसके बारे में कुछ कहना सरल नहीं, पर जान लेते हैं।
नारी शब्द निर् या नर से बना है। यास्क के अनुसार नर का अर्थ है नाचने वाला, जिसकी सहयोगी होने के कारण नर से नारी की उत्पत्ति हुई।
नारी का पर्यायवाची रूप है स्त्री। स्त्री शब्द स्तये धातु से बना है जिसका अर्थ पारिणी ने शब्द करना लिखा है, जबकि व्युत्पत्ति कोष में यह शब्द स्पर्श, रूप, रस व गंध का समुच्चय बताया गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि, नारी को पुरूष प्रधान समाज ने अपने-अपने विचारों के अनुसार परिभाषित किया है।
नारी को यदि प्रकृति की संतति के रूप मे देखा या समझा जाए तो हम कह सकते हैं कि यह पृथ्वी यह सृष्टि ब्रम्ह की कृति है, कौशल है, कला कृति है, हृदय के उद्गार हैं। सृष्टि नारी है। ब्रह्म की कोमल भावना की अभिव्यक्ति है। अतः नारी सृष्टि है, जननी है, धरणी है, जगत का कारण है, जो कण-कण में प्रतिष्ठित है। संसार के रंगमंच का वह सर्वोत्तम जीवन्त पात्र है, और संसार की जीवंती है। सृजन और संस्कार की गंगोत्री एवं मानवता की गंगा है। प्रकृति शक्ति की संचेतना और सहचरी है। जड़ स्वरूप पुरुष को अपनी नई चेतना प्रकृति से आकृष्ट कर शिव और शक्ति का मिलन है। सत्यं शिवं सुंदरं की संस्थापक है शिव और शक्ति सनातन है। प्रकृति नारी प्रधान है। नारीत्व प्रकृति का मुख्य तत्व है, इसीलिए गतिमान है। प्रकृति का पुरुष तत्व जड़ है, इसीलिए स्थिर है। धरती स्वयं चलायमान है, इसीलिए, दिन रात, मौसम, साल और परिवेश बदलती रहती है। सूर्य स्थिर है, इसलिए सबको चलायमान रखता है। पुरुषार्थ का पाठ पढ़ाता रहता है।
जिस प्रकार नरम माटी में ही बीज बोना एवं उत्पत्ति संभव है, उसी प्रकार नारी के कोमल अवयव भी शक्ति स्वरूपा पुरूष की धात्री है। सृष्टि की उत्पत्ति के तहत दो लिंगों की अवधारणा करने वाले श्री विष्णु ने नारी को बनाते समय अधिक समय लिया था, पर हमारे पुरूष दम्भ समाज को यह सह्य नहीं था कि कोमलांगी नारी मुझसे श्रेष्ठ कही जाए। इसलिए इन्होंने शनै-शनै कई सामाजिक मर्यादाओं में नारी को बांध कर उसे हमेशा ही हेय समझा।कोमलांगी बनाकर सृष्टि ने स्वंय ही नारी को मर्यादा में बांध दिया और वह परिवार की सहचरी होकर पुरूष के संरक्षण में रहने लगी।
पुरूष, माँ नहीं बन सकते इसलिए मजबूरन उन्हें नारी को माँ के रूप में प्रतिष्ठित करना पड़ा और सम्मान देना पड़ा। जैसे कहावत है कि ‘अकेला चना भाड़ नहीं भूज सकता’, उसी प्रकार अकेले किसी समाज की स्थापना की भी परिकल्पना असंभव है। इस प्रकार नारी माँ के रूप में अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादित कर पाई। प्राचीन काल में अनेक विसंगतियों के बीच भी अहिल्या, द्रौपदी, कुन्ती आदि को माँ के रूप में ही पूजित माना गया है। अतः माँ का श्रेष्ठ रूप भावनाओं की सारी मर्यादाओं को तोड़कर अपना अस्तित्व आज भी अक्षुण्य रखे हुए है।
जहाँ तक बलिदान का प्रश्न है, तो नारी इसमें भी पुरूषों से बाजी मार लेती है। बलिदान का गुण नारी में जन्मजात होता है। कारण कि, भगवान ने नारी के मन में प्रेम की इतनी उत्कृष्टता भर दी है कि वह प्रेम-ममता के कारण सब कुछ उत्सर्ग कर देती है। यह कहा जा सकता है कि बलिदान और प्रेम एक-दूसरे के पूरक हैं। हमारे इतिहास में नारियों द्वारा किया गया बलिदान स्वर्ण अक्षरों में लिखा है। पन्ना दाय ने अपने राज्य की रक्षा के लिए अपने बेटे का ही बलिदान कर दिया। हाड़ी रानी ने विजय पताका का सेहरा पति के माथे पर फहराने के लिए अपना शीश ही बलिदान कर दिया।
स्वाधीनता संग्राम में लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, ननी बाला देवी, अजीजन बाई आदि बहुत-सी नारियों का जिक्र हम पाते हैं, जिन्होंने देश की खातिर अपना तन-मन-धन सब निछावर कर दिया।
जहाँ तक हौंसले का प्रश्न है तो नारी के हौंसले परिन्दों के समान आसमान को छू लेने के हैं। वो वह हर कार्य कर सकती है, जिसकी कल्पना पुरूष कर ही नहीं सकते, पर इन हौंसलों की उड़ान को उन्होंने अपने कर्तव्य के आगे हावी न होने दिया। भावना से कर्तव्य ऊँचा होता है, इसी अवधारणा को लेकर चलने वाली नारी ने जब-जब समय पड़ा, अपनी उड़ान को साबित कर दिखाया। पी.टी. उषा, कल्पना चावला, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ज्योति राव फुले आदि सभी ने हौंसलों की उड़ान के लिए अपनी बेड़ियाँ तोड़ दी।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि, नारी अपने अस्तित्व की लड़ाई में निरन्तर प्रयासरत रही है, जबकि इस पुरूष प्रधान समाज में यह हक पाना बहुत ही मुश्किल था। प्राचीन काल या सतयुग की बात लें, जिसकी अवधारणा पर हम आज भी चलते हैं तो हम पाते हैं कि, उस काल में नारी को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, पर उसमें भी नारियाँ परिवार के दायरे में मर्यादित रूप में ही थी। शनै-शनै पुरूषों की विचारधारा बदलती गई और नारियों को मात्र भोग्या की पदवी दी गई। मुस्लिम सभ्यता के आगमन ने रही सही कसर भी पूरी कर दी। फिर भी मध्यकाल में रजिया सुल्ताना, गोंड रानी दुर्गावती, नूरजहाँ और जीजाबाई आदि ने अपने अस्तित्व की लड़ाई तत्कालीन समाज से लड़ी। तब से लेकर अब तक नारी संघर्षशील ही रही हैं, केवल अपने हौंसले के रूप में।

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