पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
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नारी से नारायणी (महिला दिवस विशेष)…
सदियों से पूज्य रही हूँ,
कन्या रूपेण मातृ रूपेण
सीता भी मैं हूँ राधा भी मैं हूँ,
द्रौपदी और गांधारी भी मैं हूँ।
मैं नारी हूँ…
कभी बेटी तो कभी बहन
कभी प्रेमिका तो कभी पत्नी,
मैं ही माँ भी हूँ
जीवन में पल-पल रूप बदलते रहे पर रहती तो नारी ही हूँ।
मैं नारी हूँ…
सदा-सदा से कर्तव्यों की
बेड़ियों में जकड़ी रहती हूँ,
अपने अधिकारों के लिए
आजीवन संघर्ष करती रहती हूँ।
मैं नारी हूँ…
छोटी थी तो सुनती थी
पराई अमानत हो,
अपने घर में अपने मन का करना
ससुराल में बहू हो… बहू की तरह रहो,
अपने अस्तित्व के लिए
हर पल लड़ती रही झगड़ती रही।
मैं नारी हूँ…
मैं कोमलांगी हूँ रूपसी हूँ
प्रेमिका हूँ अर्धांगिनी हूँ,
मैं डॉक्टर हूँ, इंजीनियर हूँ
मैं वैज्ञानिक हूँ, पायलट हूँ,
मैं फौज में मेजर भी हूँ
मैं क्या नहीं हूँ और कहाँ नहीं हूँ,
मैं जीवन की धुरी हूँ
पृथ्वी जैसे अपनी धुरी पर घूमती है,
वैसे ही परिवार समाज देश और सारी दुनिया
नारी के इर्द गिर्द ही घूमती है।
मैं नारी हूँ…
इसीलिए शोषित भी होती रहती हूँ
क्योंकि लोगों की नजरों में,
‘जोरदार माल हूँ’, ‘क्या मस्त चीज हूँ’
कोई अपनी नजरों से घूर-घूर कर खुश होता है,
कोई यहाँ-वहाँ स्पर्श कर परम सुख पाता है
कोई मुझे मसल कर रौंद कर सुख पाता है,
लोगों के लिए ‘यूज एंड थ्रो’ भी हूँ
पुरुषों की नजरों में मैं भोग्या हूँ।
मैं नारी हूँ…
टिड्डी दलों की तरह चारों तरफ
झुंड के झंड घूम रहे मनचले,
जो नौकरी का लालच दिखला कर
जीवन के रंग-बिरंगे सपने दिखला कर,
सतरंगी हसीं ख्वाबों को दिखलाकर
अपने पैने डंक मारने को बेताब।
मैं नारी हूँ…
हर कदम पर ऐसे सर्पों से
दुनिया अटी पड़ी,
जो अपने जहरीले डंक से
नारी के अस्तित्व और अस्मत को,
रौंदना अपना मौलिक अधिकार समझते हैं।
मैं नारी हूँ…
यह इक्कीसवीं सदी है
आधुनिकता की आपा-धापी में,
आगे बढ़ने की मारामारी में
पल-पल नारी अपना रूप बदल रही,
अब यह कोमलांगी नहीं
वरन, बदले की आग में झुलस रही।
मैं नारी हूँ…
कंगना बन गरज रही
अब वह भी तरह-तरह के षडयंत्र रच रही,
सच तो यह है कि
अब नारी ही सब पर भारी है,
नारी के बढ़ते कदम
और इस बदले रूप को देख,
समूचा विश्व हो रहा चकित।
अब मजबूरीवश ही सही,
पर नारी का लोहा मान रहा॥
मैं नारी हूँ…