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पिता ही छाँव

डॉ. संजीदा खानम ‘शाहीन’
जोधपुर (राजस्थान)
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ज़मीं पर एक ही ऐसा हुआ घर बार अब्बू जाँ।
जहाँ हम बेटियों को भी मिला है प्यार अब्बू जाँ।

चलाते रोज़ ही रिक्शा मेरे खुद्दार अब्बू जाँ,
मगर घर को नहीं होने दिया बाज़ार अब्बू जाँ।

यही पहचान मोमिन की कभी झुकता नहीं है वो,
बहुत झेली है वरना वक़्त की हर मार अब्बू जाँ।

बहुत घोंपे जिन्होंने आपकी ही पीठ पर खंज़र,
ग़मों में आप ही उनके हुए ग़मख्वार अब्बू जाँ।

भरोसा बेटियों पर से कभी उठने नहीं देना,
करे बातें जो वाहीयात ये संसार अब्बू जाँ।

मैं बेटी थी मगर जो आपने बेटा मुझे समझा,
करूँगी आपके सपने कभी साकार अब्बू जाँ।

ज़माने को शिकायत का कभी मौका नहीं दूँगी,
सदा ऊँची रहेगी आपकी दस्तार अब्बू जाँ॥