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बसंत रंग गया कुम्भ रंग में

ममता तिवारी ‘ममता’
जांजगीर-चाम्पा(छत्तीसगढ़)
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झूमी पवन आया बसंत, बारह वर्ष तपे थे प्रान,
मैं बनूँ पंच प्रसुन बान, तुम अनंग बन गाओ गान।

यह कुम्भ और यह मधुमास, उत्सव का यह चरमोत्कर्ष,
आध्यात्म का एक बीज मंत्र, उत्साह का एक आसमान।

पंछी हृदय ऊँची उडा़न, कर कल्पना तट कल्प वास,
तन-मन करें आओ प्रयाग, हिय संगम में हुआ विहान।

गंगा-यमुन की श्वेत श्याम, धारा की मैं उछली बूँद,
मैं बनूँ ‘नीलकुरिंजी पुष्प’ तुम बनो अमृत कुम्भ स्नान।

किंसुक कुसुम अंजुरी अम्बु, नेह नीर का दे दो अर्ध्य,
आम्रमंजरी मंडप बीच, धर लें ध्यान चातक समान।

तपसी ले हिमगिरि का तेज, जैसे शंकर का अवधूत,
आया पाने मोक्ष प्रसाद, पा करता है गुप्त प्रयान।

तुम प्राप्त दान का एक अंश, दे कंत कमाना पुण्य प्रेम,
कोकिल कंठ में करूँ जाप, तुम ताप हरो बन वरदान।

विशेष-‘नीलकुरिंजी’ पुष्प भी कुम्भ की तरह १२ वर्ष के बाद प्रस्फुटित होता है। इसे देखने-पाने की इच्छा हो, तो व्यक्ति को धैर्य-विश्वास के साथ प्रतीक्षा करनी होती है। यह गंगा से निकली नहरनुमा नदी ( बरसात के बाद सूख जाती है) के किनारे मिलता है।

परिचय-ममता तिवारी का जन्म १ अक्टूबर १९६८ को हुआ है और जांजगीर-चाम्पा (छग) में निवासरत हैं। हिन्दी भाषा का ज्ञान रखने वाली श्रीमती ममता तिवारी ‘ममता’ एम.ए. तक शिक्षित होकर ब्राम्हण समाज में जिलाध्यक्ष हैं। इनकी लेखन विधा-काव्य (कविता, छंद, ग़ज़ल) है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नित्य आपकी रचनाएँ प्रकाशित होती हैं। पुरस्कार की बात की जाए तो विभिन्न संस्था-संस्थानों से आपने ४०० प्रशंसा-पत्र आदि हासिल किए हैं।आपके नाम प्रकाशित ६ एकल संग्रह-वीरानों के बागबां, साँस-साँस पर पहरे, अंजुरी भर समुंदर, कलयुग, निशिगंधा, शेफालिका, नील-नलीनी हैं तो ४५ साझा संग्रह में सहभागिता है। स्वैच्छिक सेवानिवृत्त शिक्षिका श्रीमती तिवारी की लेखनी का उद्देश्य समय का सदुपयोग और लेखन शौक को पूरा करना है।