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बाढ़,सामाजिक संचार और उम्मीदों का ‘एयरलिफ्ट’ होना…!

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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इसे कहते हैं कुदरत की मार। आज से करीब १५ दिन पहले तक तमाम मप्र वासी इंद्र देवता को रिझाने के लिए पूजा-पाठ और टोने-टोटके में लग गए थे कि अचानक मौसम ने करवट बदली। राजनीतिक सरगर्मी और टोक्यो ओलिम्पिक में खुशियों के उतार-चढ़ाव के बीच आसमान में कुछ पानी भरे तंत्र बने और प्रदेश पानी से तरबतर होने लगा,लेकिन बारिश का मौसम हो और कहीं से भी बाढ़ की खबर न आए,तब तक मानो आषाढ़ और सावन की तस्दीक नहीं होती। इस बार यह आपदा मध्यप्रदेश के उत्तर-पश्चिमी इलाके चंबल में आई है। चंबल और इस अंचल की दूसरी नदियों के रौद्र रूप के कारण इलाके के २०० से ज्यादा गाँव प्रभावित हुए हैं। हजारों लोगों को सुरक्षित स्थान पर ले जाना पड़ा है। बड़े पैमाने पर राहत कार्य चल रहे हैं। स्वयं मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान इसकी निगरानी कर रहे हैं। साथ में एनडीआरएफ,एसडीआरएफ व सेना भी लोगों को बचाने के काम में जुटी है।
इस हकीकत के बावजूद सामाजिक संचार (सोशल मीडिया) की अपनी ही दुनिया है,जो सच को भी नमक-मिर्च के साथ परोसने से परहेज नहीं करती। इस संजीदा माहौल में भी कुछ वीडियो ऐसे प्रसारित हुए, जिनकी नरम-गरम चर्चा हो रही है। पहला वीडियो राज्य के गृह मंत्री डॉ.नरोत्तम मिश्रा के जुझारू जज्बे से जुड़ा है। मंत्री अपने क्षेत्र दतिया में बाढ़ का जायजा लेने और मुश्किल में फंसे लोगों की मदद करने गए थे,लेकिन बाद में वो खुद ही बाढ़ में घिर गए और सेना के हेलीकाॅप्टर को उन्हें एयरलिफ्‍ट करना पड़ा।
इसी के बरक्स एक दूसरा वीडियो भी फैल हो रहा है,जिसमें बाढ़ प्रभावित इलाके में नाव में बैठे कुछ अफसर मौज-मस्ती के मूड में दिख रहे हैं। बाढ़ की भयावहता से ज्यादा उनकी शारीरिक भाषा में तफरीह का इरादा ज्यादा झलक रहा है। अधिकारियों ने ऐसे किसी वीडियो से इंकार किया है,लेकिन यह अपने-आप में काफी कुछ कहता है और ये कि सरकारी तंत्र अपनी ही शैली में काम करता है। फिर चाहे वह बाढ़ की ‍विभीषिका ही क्यों न हो। बचाव कार्य भी आत्ममुग्धता के साथ करना,उसकी गंभीरता को कम करने जैसा है।
वैसे,इन भयंकर हालात में भी गृह मंत्री ने जो दिलेरी दिखाई और जोखिम उठाया,उसकी उस विपक्षी कांग्रेस ने भी तारीफ की,जो अक्सर विरोध में तंज करती रहती है।
यह बात अलग है कि कुछ विघ्न संतोषियों को इसमें भी नौटंकी नजर आई।
बहरहाल मंत्री का एयरलिफ्‍ट होते जो वी‍डियो प्रसारित हुआ,उसने पिछले साल असम में आई बाढ़ के दौरान स्थानीय भाजपा विधायक मृणाल सैकिया की जांबाजी की याद दिला दी। उस वीडियो में भी सैकिया गले तक पानी में खुद खुमताई गाँव के लोगों को बाढ़ से निकालने में मदद करते दिख रहे हैं। ऐसा ही जोखिम उत्तराखंड में पिछले साल कांग्रेस विधायक हरीश धामी ने उठाया था। वो बाढ़ से प्रभावित राज्य के धारचूला क्षेत्र में बाढ़ प्रभावितों को बचाने के लिए पहुंचे थे।
कहने का आशय ये कि सार्वजनिक जीवन में रहना है तो जनप्रतिनिधियों को ऐसी जोखिम लेनी पड़ती है जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता कायम रखने के लिए। कुछ लोग इसमें भी प्रचार की भूख तलाशें तो यह उनका दृष्टिदोष है। यह कोई जान-बूझकर किया गया ‘राजनीतिक रोमांच’ नहीं होता और न ही अपने वजूद को जताने की कोशिश होती है। बल्कि,इसमें अपने लोगों की प्रति गहरी चिंता और यह संदेश निहित होता है कि आपदाओं से डरें नहीं। जब मैं नहीं डर रहा तो आपको डरने की क्या जरूरत है ? मैं और सरकार आपके साथ खड़ी है। ऐसे में आलोचकों का यह तर्क दुर्भावना से प्रेरित है कि जब इतना खतरा था तो मंत्री को वहां जाना ही नहीं चाहिए था या फिर इस तरह वीडियो फैलाना या करना भी लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश है। कुछ विघ्न संतोषियों ने तो इसे ‘राजनीतिक एयरलिफ्‍ट’ के रूप में देखने की हिमाकत भी की। वो भूल गए कि किसी भी आपदाग्रस्त क्षेत्र में मंत्री की शक्ल में सरकार वहां पहुंचती है। नेता की निर्भयता से जनता में हिम्मत रखने का संदेश जाता है। मंत्री की मौजूदगी से प्रशासन भी पूर्णत: हरकत में रहता है। अगर यह ‘एयरलिफ्‍ट’ है तो उम्मीदों का ‘एयरलिफ्ट’ होना है।
यूँ किसी भी क्षेत्र में बाढ़ का आना संकट और सुकून दोनों का परिचायक है। संकट इस माने में कि पानी के रौद्र रूप से हजारों लोग शरणार्थी बनने पर विवश हैं। फसलें, सड़कें,पुल व तटबंध बह गए हैं। सुकून इस अर्थ में कि इस साल मानसून के बीच में ही रूठ जाने से सूखे का जो साया मंडराने लगा था,वो अब दूर हो चुका है। पानी न आने की चिंता पानी से बचने की ‍जद्दोजहद में बदल चुकी है।

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