हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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सजा-ए-मौत सुनाकर भरी अदालत में,
फिर से अपील कर होती जहां पर माफी है
वह अदालत की है शहर-ए-आम तौहीन,
या फिर, न्याय के चाहवानों से बेइंसाफी है।
जहां दशकों लग जाते हैं हे राम! तुझे ही,
अदालत में अपना ही नियत न्याय पाने में
सोचो जरा क्या हालत होती होगी ऐसे में,
कमजोर,सर्वहारा,मजलूमों की जमाने में ?
अदालत भली है उस परवरदिगार की,
जहां न कोई वकालत है, न ही सुनवाई है
माफी का तो कोई भी सवाल ही न उठाता,
जिसे एक बार सजा साहेब ने जो सुनाई है।
इस दुनिया में वकालत और सुनवाई के,
एक से बढ़कर एक नए-नए लफड़े है
कानूनी दांव-पेंच के बीच में ही मुकदमे,
साल-दर-साल अदालत में जकड़े हैं।
मिलता किसे है वक्त पर ही न्याय यहां ?
मुकम्मल न्याय की तो उम्मीद ही बेकार है
मुड़ जाती है अधिकतर न्याय की तासीर वहां,
जिधर को खड़ी दिखती खुद ही सरकार है।
दफ़न हो जाती है कई फाइलें यहां,
कई साल-दर साल धूल फांक रही है
इस महंगी होती हुई न्याय व्यवस्था में,
गरीबों ने हमेशा ही बेइंसाफी सही है।
रिमांड-शिनाख्त के नाम पर है धांधली यहां,
तो कभी जांच,पड़ताल, सबूतों में घोटाला है
फिर भी मिल जाए न्याय सालों बाद किसी को,
तो क्या मजा ? न ही तो अंधेरा-न ही उजाला है।
अपनी बात कहने को अदालत में भला,
वकीलों की वकालत की क्या दरकार है ?
कौन दोषी है इस लूट की व्यवस्था का ?
स्वयं अदालत है या कि फिर सरकार है ?
मुकदमा मेरा है तो मैं खुद बात रखूं,
भला जरूरत ही क्या है वकीलों की ?
जरूरी कर दी जाए कानून की पढ़ाई तो,
दरकार कहां रहेगी वकीली दलीलों की ?
चश्मदीद गवाहों की गवाहियां ही जहां,
वक्त पलभर में ही बदल दी जाती है।
उस दुनिया की न्याय व्यवस्था पर तो,
मुझे अजीबो-गरीब सी घिन आती है॥