शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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सर्वप्रथम स्व. वीर सावरकर और श्रेष्ठ नायक व सफल राजनेता स्व. एनटीआर को श्रद्धांजलि अर्पित।
गुण कभी नहीं मिटते, चाहे स्थिति वंश औपनिवेशकों से क्षमायाचना की बात की हो। मुख्य लक्ष्य प्राप्ति के समक्ष सब-कुछ फीका ही रहता है। दूसरी प्रसन्नता इस बात की कि, आज का दिन नए भारत निर्माण में ‘नए लोकतंत्र भवन’ का जन्मदिन है। यह सुअवसर भारत के वर्तमान जनसमूह को देखने व अनुमति का भी है। नए लोकतंत्र भवन के उद्घाटन समारोह से मन स्वत: गर्व महसूस कर रहा था, जैसे देश आज ही आजाद हुआ है। संस्कृति व विचारों की विरासत संजोए नए लोकतंत्र भवन ने अपनी मूक भाषा से सम्मोहित भी किया।
पुराने लोकतंत्र भवन की विशेषता यह थी कि, वह चौंसठ योगिनी साधना मंदिर की प्रतिलिपि है। तब भी सनातन संस्कृति के दर्शन से प्रभावित हुए। धर्माचार्यों द्वारा लोकतान्त्रिक पराकाष्ठा को यज्ञ व ऋचाओं से प्रकाशमान किया गया। पारंपरिक वेशभूषा और सर्वधर्म पूजा-पाठ द्वारा ‘धर्मनिरपेक्षता’ का निष्काम भाव से राजतिलक भी हुआ।
सत्ता पक्ष और विपक्ष की बढ़ती दूरियाँ माथे पर सिलवटें लें आईं। विडम्बना ही कह सकते हैं कि, सन् १९४७ में वर्तमान राजनीतिक दल सत्ता पक्ष राजनेता के लोकतंत्र भवन में आयोजित कार्यक्रम में उपस्थित नहीं थे, और आज उस समय के राजनेता उपस्थित नहीं हुए। ये भी इत्तेफाक की बात है, वो भी इत्तेफाक की बात थी। सो, दोनों की जमा-नामे सूची का मिलान हो गया।
उम्मीद करते हैं कि, सौंदर्यमयी नए लोकतंत्र में जब लोक व राज्य सभा सत्र चलेगा तो, बिना झिझके लठ्ठे के कपड़े पर लगी मांड जैसा अकड़कर जनता दरबार को शोभायमान अवश्य करेंगे। दोनों पक्षों के नेता आपस में हाथ मिला या गलबहियाँ डाले तीखी नोक-झोंक कर जनहित करने में सकुचाएंगे नहीं। यह भी लोकतंत्र की प्रक्रिया का अहम् हिस्सा है। गिले-शिकवे एक तरफ, नए चुनावी रण में कूदने का स्थान और स्वागत भी आगामी समय में यही ‘नया लोकतंत्र भवन’ ही देगा, ‘व्हाइट हाउस’ नहीं, कि-
‘यारों! यदाकदा रुठा करो, कोई मना नहीं है,
इतना रुठो कि मनाने की गुंजाइश बाकी रहे।’
चलिए, क्षमा किया जनता ने इस बार यह सोचकर कि, आदतन आवेश में फर्नीचर कुर्सियाँ भले न टूटें, जूते-चप्पल चलने की संभावना से इंकार नहीं है। आखिरकार पारंपरिक विरासत की वेशभूषा को लोकतांत्रिक जनता सब कण-कण से जानती है।