दिल्ली
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शून्य भेदभाव दिवस (१ मार्च) विशेष…
दुनिया में भेदभाव की ऊँची-ऊँची दीवारों पर अमानवीयता, छूआछूत, अन्याय, शोषण, उत्पीड़न के काले अध्याय लिखे हैं, इनके खिलाफ़ लड़ाई के लिए बहुआयामी, उदार एवं मानवीय दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो मूल कारणों एवं जड़ों पर प्रहार करते हुए सामाजिक-राजनीतिक मानदंडों को चुनौती दे और पहचान के विभिन्न आयामों में समावेशिता और समानता को बढ़ावा दे। भेदभाव के विभिन्न रूपों के बारे में जागरूकता और समझ को बढ़ावा देकर हम सभी के लिए अधिक न्यायपूर्ण और समतापूर्ण दुनिया बनाने की दिशा में काम कर सकते हैं। इसी उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा प्रत्येक वर्ष १ मार्च को ‘शून्य भेदभाव दिवस’ मनाया जाता है, जो कोई प्रतीकात्मक उत्सव नहीं है, बल्कि सीमाओं, संस्कृतियों और समुदायों के बीच समानता की एक शक्तिशाली घोषणा है। इसे मिसाल नहीं, मशाल बनाना होगा। यह निष्पक्षता, समानता और सभी के लिए सम्मान के लिए लड़ने की अटूट प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
इसके द्वारा जातिवाद, रंगवाद, नस्लवाद व भाषावाद आदि विषमता एवं विसंगतिमूलक व्यवस्थाओं एवं सोच की जड़ें हिलाई गई है।
दुनियाभर में इक्कीसवी सदी का आदमी हवा में उड़ने लगा है, चाँद पर चहलकदमी करने लगा है, ग्रह-नक्षत्रों की दुनिया में झांकने लगा है, यंत्र मानव का निर्माण करने लगा है, अपनी अधिकांश समस्याओं का समाधान कम्प्यूटर-कृत्रिम बुद्धिमता से पाने लगा है, लेकिन इंसान-इंसान के बीच के भेदभाव को मिटाने की दिशा में अभी भी यथोचित सफलता नहीं मिली है। यही कारण है कि भेदभाव खड़े हैं। नस्लीय भेदभाव एक गहरा मुद्दा बना हुआ है, जो अल्पसंख्यक समूहों को प्रभावित करता है। रूढ़िवादिता, पूर्वाग्रह और प्रणालीगत नस्लवाद असमान अवसरों, संसाधनों तक सीमित पहुंच और शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवा में व्यापक असमानताओं का बड़ा कारण है। इसी तरह लैंगिक पूर्वाग्रह और रूढ़िवादिता भेदभाव को बढ़ावा देती है, जिससे महिलाओं को अक्सर वेतन में अंतर, सीमित उन्नति और सामाजिक अपेक्षाओं का सामना करना पड़ता है जो उन्हें पारंपरिक भूमिकाओं तक सीमित कर देती हैं, जिससे उनकी स्वतंत्रता और क्षमता सीमित हो जाती है।
विभिन्न अध्ययनों और प्रतिवेदन से वैश्विक स्तर पर संस्कृतियों एवं समाजों में भेदभाव के बारे में चिंताजनक आँकड़े मिलते हैं। भेदभाव के दुष्परिणाम व्यक्तिगत अनुभवों से कहीं आगे तक फैले हुए हैं, जो पूरे समुदाय को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। भेदभाव सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को बढ़ावा देता है, जिससे पीढ़ियों तक नुकसान का चक्र चलता रहता है। जैसे-जैसे शून्य भेदभाव दिवस आंदोलन ने गति पकड़ी, भेदभाव के खिलाफ लड़ाई में मील के पत्थर हासिल होते गए, जिससे अधिक समावेशी भविष्य की उम्मीद जगी है।
महात्मा गांधी ने भारत में भेदभाव की अमानवीता को न केवल धोया, बल्कि अधिक समानता एवं समतापूर्ण आदर्श-समाज व्यवस्था की नींव रखी। अगर गांधी जी ने अछूतोद्धार आन्दोलन नहीं चलाया होता, उनके कल्याण के लिए संघर्ष नहीं किया होता, तो ये हरि-जन आज हीन एवं दीन ही बने रहते। ऐसा चरित्र आज कहाँ ? उनका व्यक्तित्व सुन्दर चमड़ी का नहीं था, उनकी छवि विदेशी कपड़ों से नहीं थी, उनके विचार आयात किए हुए नहीं थे। एक दुबला-पतला भारत की धरती के लोगों के हृदय की भाषा बोलता था और इंसान को बांटने वाली हर दीवार एवं हर भेदभाव को मिटाता चला गया। आज नेता समस्याओं को सड़ा रहे हैं-समाधान नहीं दे रहे हैं। लोगों का विश्वास टूट रहा है।
भेदभाव के खिलाफ लड़ाई गांधी जैसे अनेक विश्व व्यक्तित्वों के अथक प्रयासों से प्रेरित हैं, जिनकी प्रतिबद्धता ने वैश्विक मंच पर एक अमिट छाप छोड़ी है। ऐसी ही एक प्रतिष्ठित हस्ती नेल्सन मंडेला हैं, जिनकी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद को खत्म करने के लिए आजीवन प्रतिबद्धता उत्पीड़न के खिलाफ़ लचीलेपन का प्रतीक है। लड़कियों की शिक्षा के लिए निडर योद्धा मलाला यूसुफजई तालिबान द्वारा हत्या के प्रयास से बचने के बाद एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में उभरीं। सभी के लिए शिक्षा के प्रति मलाला के अटूट समर्पण और लैंगिक समानता के लिए उनके अथक प्रयास ने उन्हें १७ साल की उम्र में नोबेल शांति पुरस्कार दिलाया। हार्वे मिल्क, रूथ बेडर गिन्सबर्ग, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और एम्मा गोंजालेज की सक्रियता से ग्रेटा थनबर्ग की जलवायु न्याय की लड़ाई तक, प्रत्येक व्यक्ति ने एक स्थायी विरासत छोड़ी है।
शिक्षा और जागरूकता भेदभाव से निपटने की नींव बनाती है, जो पूर्वाग्रहों को खत्म करने में महत्वपूर्ण है। समाज विभिन्न शैक्षिक स्तरों पर समावेशी पाठ्यक्रम को एकीकृत करके रूढ़िवादिता को चुनौती दे सकता है। दुनियाभर की सरकारें और संगठन व्यक्तियों को भेदभाव से बचाने के लिए मजबूत कानून की आवश्यकता को महसूस करते हैं। हाल के वर्षों में हाशिए पर पड़े समूहों की सुरक्षा और समान अवसरों को बढ़ावा देने वाले प्रभावशाली कानून की ओर बदलाव देखा गया है। भेदभाव के खिलाफ़ प्रगति के बावजूद संतुलित व समतापूर्ण समाज-निर्माण में महत्वपूर्ण चुनौतियाँ बनी हुई हैं।
इंसान ने भेदभाव की नीति अपनाते हुए संसार बाँट दिया। उसने स्वयं को सर्वाेपरि समझते हुए सारी धरती पर अपना अधिकार करना चाहा। उसने समुद्र से ज़मीन छीनी, जंगलों का सफाया किया और पशु-पक्षियों को बेघर किया। मानव और मानव के बीच में जो भेद की दीवारें खड़ी हैं, उनको ढहाना होगा, और इसके लिए शून्य भेदभाव दिवस जैसे विश्व अभियान को अधिक सशक्त एवं सक्रिय करने की आवश्यकता है।