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मन के मनके एक सौ आठ

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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भाग १

इस लेख को रचने के लिए प्रसिद्ध साहित्यकारों की कृतियों की सहायता ली गई है,और उनके वक्तव्यों को ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है,जो एक पात्र के रूप में चरित्र-चित्रण करते हैं। विद्यार्थी,शोधार्थी व शौक या अपनी रुचि के लिए नए रचनाकार कुछेक विधाओं में लिखने के लिए प्रयासरत् रहते हैं,यह लेख उनके कुछ मनोभावों को भाव स्पष्ट करने में सहायक हो। इसी उद्देश्य से ‘मन के मनके एक सौ आठ’ लेख-निबंध जैसी रचना करने की छोटी-सी चेष्टा की है,जैसे घनघोर अंधेरे में कहीं से एक हल्की सी प्रकाश-किरण का उदय हो जाना। रुचिकर लगे या न लगे,लेकिन कुछ न कुछ प्रकाश अवश्य होगा। कभी-कभार ऐसा अपने मनोभावों को उत्साहित करने के लिए लिखना भी आवश्यक होता है।

सूरज का प्रकाश जैसे-जैसे धरा पर फैलता,कवि महोदय का मन आत्म-विभोर हो,कुछ न कुछ प्रकृति संग रचने लग जाता। उनकी यह अनुभूति पहले शौक़ बनी,फिर अध्ययन और अंत में अभ्यस्तता। कवि महोदय पनी रचनाओं के प्रति हो रहे छल की बिसात से मात खाते रहते। यह प्रवृति उनकी दिनचर्या में घुल-मिल गई थी। नित-नियम से पालन करने के वचन के लिए ख़ूब दौड़-धूप करते, अपनी चप्पलें घिसते रहते,कि कभी कोई मंच पर कविता पढ़ने के लिए निमंत्रण दे, कभी उनकी भी कोई रचना समाचार-पत्रों में छपे,परन्तु भाग्य को तो काठ मार गया था। वह हिलता-डुलता तो था पर चलता नहीं। एक दिन ऐसे ही थके-हारे घर की कुर्सी पर ही थकान मिटाने बैठे ही थे कि खिड़की से आती ठंडी हवाओं ने कब सपनों की यात्रा की ओर प्रस्थान करवा दिया,उन्हें स्वयं भी पता न चला। अब जो मन के मनके एक सौ आठ,ऐसे फिरे कि सपनों में ज्ञानी जा बने।
आज कविवर का सामना एक आलोचक से हो गया। पहले वे घबराए और बुदबुदाए, “कहीं ये महाशय मेरा परिहास करने को तो नहीं पधारे हैं ? वार्तालाप करते-करते कवि महोदय ने अपने मन के बोझ को उतारने की ठानी। महत्वाकांक्षी व व्याकुलता से भरे मन ने प्रश्नों की झड़ी से अपने असफल होने का कारण उपस्थित मान्यवर से ही पूछने की ठानी और बेझिझक प्रश्न कर दिया, “मान्यवर,कविता क्या है ?” और “मेरा तो इस कविता ने जीना दुश्वार कर रखा है।”
आलोचक मुस्कुराते हुए ठहराव से बताने लगे, “ किसी प्रभावोत्पादक और मनोरंजन,लेख,बात या वक्तृत्व का नाम कविता है।“
कविवर झेंपकर कहने लगे, ”जनाब,तो फिर…पद्य …।”
आलोचक ने बात को बीच में काटते हुए कहा, “ नियमानुसार तुली हुई स्तरों का नाम पद्य है।”
कवि ने झुझंलाकर पूछा, “अजीब हैं आप! मुझ पर आपकी इस बात का कोई असर नहीं हो रहा है।“
आलोचक ने फिर से समझाने का प्रयास किया और कहने लगे, “जिस पद्य को पढ़ने या सुनने से चित्त पर असर नहीं होता,वह कविता नहीं,वह नपी-तुली शब्द स्थापना मात्र है। गद्य और पद्य दोनों में कविता हो सकती है। तुकबन्दी और अनुप्रास कविता के लिए अपरिहार्य नहीं है।”

(प्रतीक्षा कीजिए अगले भाग की…)

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