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माँ का दु:ख

सुनीता रावत 
अजमेर(राजस्थान)

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कितना प्रामाणिक था उसका दु:ख,
लड़की को कहते वक़्त
जिसे मानो,
उसने अपनी अंतिम पूंजी भी दे दी।

लड़की अभी सयानी थी,
इतनी भोली सरल कि उसे सुख का
आभास तो होता था
पर नहीं जानती थी दु:ख बाँचना,
पाठिका थी वह धुंधले प्रकाश में
कुछ तुकों और लयबद्ध पंक्तियों की।

माँ ने कहा-पानी में झाँककर,
अपने चेहरे पर मत रीझना
आग रोटियाँ सेंकने के लिए होती है,
जलने के लिए नहीं
वस्त्राभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह,
बंधन हैं जीवन के।

माँ ने कहा-लड़की होना,
पर लड़की जैसा दिखाई मत देना॥