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मेरे स्वप्न का कश्मीर

असित वरण दास
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
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यहाँ की वादियों में सुना है,
प्रेमिकाओं की पायल की झंकार गूंज उठती है
अपरूप प्रकृति ही है,
जो इंसान की प्रकृति बनकर
कितने ही दिलों में धड़कती है।

घाटी के पहाड़ों से,दरख्तों से,
जो आवाजें वापस आती हैं
उनमें प्रेम की ही जुबान चलती है,
जो अजान से अजान तक,
चेहरे से चेहरों तक सुनी जाती है।

मैं उन अनकही भाषाओं को सुनने के लिए
आतुर हो उठता हूँ,
मेरे कान उनकी तड़प और बर्फ जैसे
कठिन इरादों के पिघलने की आवाज़
सुनने को अधीर हो उठते हैं।

मैं एक सुबह देखना चाहता हूँ,
जब गंभीर कुहरे कश्मीर को अपने सीने में छुपाकर
सूरज की रोशनी को
ठिठकते चेहरों से दूर रखने का दुःसाहस करते हैं,
और दिलों के दरम्यान
एक आभासी दीवार खड़ा कर,
एक अधूरी-सी तस्वीर अंकित कर देते हैं
कश्मीर के पथ,पेड़ और घरों के
खरोंचे गए जिस्म पर।

मैं देखना चाहता हूँ,
‘डल’ झील की टूटती-बनती लहरों को
जो डूबते सूरज की आभा समेटे इंतजार करते हैं
इंसान की किलकारियों की,
लेना चाहते हैं स्पर्श,शिकारा में बैठी
किसी सुंदरी के कोमल हाथों का।

एक तीखे दर्द के समान निरंतर चलने वाली,
हवा के झोंकों के साथ जब लाल सूरज
झील में आखरी रोशनी बिखेरता है,
तब शाम आँखें उठाकर देखना चाहती
रात के फ़ैले आँचल को,
तब आसमान में चमकते असंख्य हीरे
इंसान के अधूरे सपनों के समान टिमटिमाने लगते हैं,
बर्फ की खुशबू
मुझे सोने नहीं देती रातभर
मेरी नींद उड़ाती उन ठंडी हवाओं की चुभन,
इंसान से मिले दर्द से हमेशा कम होती है।

चमकता पानी,उज्ज्वल आकाश,
और एक तुहिन कश्मीर,सभी मौन गवाह है
मेरी आँखों में बसे चंद आँसुओं के,
दूर है गंभीर विशाल पर्वत
जो क्षमाशील आँखों से निहारता है मुझको,
और स्पर्श करता है मेरे दर्द के अपनेपन को।

मैं खड़ा हूँ उसी मौनता में एक मूक दर्द के साथ,
और हमारे दरम्यान सोई रहती
ओझल-सी होती,कुहरे में डूबती।
शान्त,सुंदर,अनुपम कश्मीर,
मेरे स्वप्न का कश्मीर।

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