पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
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“राधा तू बड़ि भागिनी, कौन तपस्या कीन्ह
तीन लोक के नाथ को, अपने बस में कीन्ह।”
राधा-कृष्ण सभी हिंदुओं के आराध्य हैं, उनकी लीलाएं जनमानस के दिल पर राज करती हैं। राधा-कृष्ण के प्रेम को समझ पाना अत्यंत कठिन है। प्रेम की अनुभूति से ही व्यक्ति का तन-बदन रोमांचित हो उठता है । आनंद और प्रसन्नता की स्वर्गीय अनुभूति को ही प्रेम कहा जाता है। पूरा संसार प्रेम के आधार पर ही चल रहा है। प्रेम के अभाव में जीना लगभग असंभव-सा ही है।
सूर्य की ऊष्णता, जो संसार को जीवन प्रदान करता है… वह धरती के प्रति उसका आत्मिक प्रेम ही है…।
राधा ही कृष्ण है, और कृष्ण ही राधा है…। दुनिया की नजरों में वह २ थे, लेकिन राधारानी जी की नजरों में सिर्फ कृष्ण थे और कृष्ण जी की नजरों में सिर्फ राधा जी थी।
वास्तव में प्रेम सिर्फ पाने का नाम नहीं… न ही प्रेम न मिलने से खो जाता है। सच्चा प्रेम तो अनमोल होता है। प्रेम में शब्दों की आवश्यकता नहीं होती, आँखें ही सब-कुछ बयां कर देती हैं।
भगवान् कृष्ण और राधा जी के बारे में कौन नहीं जानता। प्रेम का नाम लेने पर सबसे पहले राधा- कृष्ण की जोड़ी को ही याद किया जाता है। हम जब कभी भी नाम लेते हैं, तो कहते हैं राधा-कृष्ण, कभी भी राधा और श्रीकृष्ण नहीं कहा जाता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है, कि राधा-कृष्ण अलग-अलग नहीं, वरन् एक ही माने जाते हैं…, क्योंकि उनका प्रेम ऐसा ही था कि २ शरीर होते हुए भी दोनों एक ही आत्मा थे।
राधा-कृष्ण का प्रेम अद्भुत था। विभिन्न कथाओं के अनुसार जब राधा जी का मुँह गर्म दूध से जल जाता है, तो फफोले भगवान् कृष्ण के शरीर पर पड़ जाते हैं। ऐसी ही एक कथा पढने के बाद पता चलता है कि दोनों के बीच कितना अद्भुत प्रेम था।
भगवान् कृष्ण सिर दर्द से कराह रहे थे…। तीनों लोकों में राधा रानी की स्तुति सुन कर नारद मुनि चिंतित हो उठे, क्योंकि वह स्वयं कृष्ण से अगाध प्रेम करते थे…। इसी समस्या के समाधान के लिए वह कृष्ण के पास आए, वहाँ देखा कि कृष्ण पीड़ा से कराह रहे हैं।
उनकी ऐसी हालत देख कर वह बोले, “प्रभु, क्या इस दर्द का इस धरती पर कोई उपचार नहीं है ?”
कृष्ण जी ने कहा, “यदि मेरा कोई भक्त अपना चरणोदक मुझे पिला दे, तो संभवतः मेरी वेदना शांत हो सकती है। यदि रुक्मिणी जी अपना चरणोदक मुझे पिला दें तो शायद मुझे लाभ हो सकता है।”
नारद जी ने विचार किया कि भक्त का चरणोदक भगवान् के श्री मुख में…, लेकिन फिर भगवान् की वेदना से व्याकुल होकर रुक्मिणी जी के पास जाकर नारद जी ने उन्हें सारा हाल सुनाया तो रुक्मिणी जी तुरंत बोलीं, “नहीं… नहीं… देवर्षि, मैं यह पाप नहीं कर सकती।”
नारद जी ने लौट कर रुक्मिणी जी की असहमति कृष्ण जी के सामने व्यक्त कर दी। तब कृष्ण जी ने उन्हें राधा जी के पास भेज दिया। राधा जी ने जैसे ही कृष्ण जी के दर्द के बारे में सुना तो तुरंत एक पात्र में जल लाकर उसमें अपने पैर डुबो दिए और नारद जी से बोलीं, “देवर्षि इसे आप तत्काल कृष्ण जी के पास लेकर जाइए। मैं जानती हूँ कि मैंने बहुत बड़ा पाप किया है और मुझे घोर नर्क मिलेगा, परंतु अपने प्रियतम के सुख के लिए मैं ऩर्क की यातना भी भोगने को तैयार हूँ…।”
यह है सच्चे प्रेम की पराकाष्ठा, जहाँ लाभ-हानि की गणना नहीं की जाती है। अब नारद जी को मालूम हो गया था, कि तीनों लोकों में राधा जी की स्तुति क्यों होती है।
प्रस्तुत प्रसंग में राधा जी ने कृष्ण जी के प्रति अपने अगाध प्रेम का परिचय दिया है। सच्चा प्यार किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होता, वरन् अपने प्रेम के प्रति समर्पित रहता है।
मथुरा से विदा होने के समय
कृष्ण जी ने कहा था कि “मेरे नाम से पहले हर व्यक्ति तुम्हारा नाम लेगा”, यही कारण है कि आज भी पूरे बृज धाम में राधे-राधे की अनुगूंज सुनाई पड़ती है।
श्रीकृष्ण को जब भी याद कीजिए, राधा जी स्वयमेव प्रगट हो जाएंगी, क्योंकि दोनों के बीच शाश्वत प्रेम है।
आश्चर्य की बात है, कि जिस कान्हा पर सारा संसार मोहित है, वह राधा जी पर मुग्ध हैं। सच तो यह है, कि जहाँ गोपियाँ कृष्ण की ६४ कलाओं का रूप हैं, तो राधा जी उनकी महाशक्ति हैं।
एक प्रश्न प्रायः लोग करते हैं, कि यदि राधा जी से इतना ही प्रेम था तो कृष्ण उन्हे छोड़ कर क्यों चले गए…? फिर कभी लौटे क्यों नहीं… क्यों उन्होंने अपनी मित्रता भी नहीं निभाई…? क्यों उन्हें गोपियों को समझाने के लिए उद्धव जी को भेजना पड़ा…? गोपियाँ रो-धोकर मान भी जाती हैं। वह विरह का घूँट पीकर रह जाती हैं, परंतु यहीं से गोपियाँ भक्तिमार्ग को प्रशस्त करती हैं। राधा जी अपने एकनिष्ठ प्रेम का उदाहरण तो हैं ही, भक्ति का भी सहज माध्यम है…। उनके स्मरण मात्र से मन का अवसाद दूर होकर मन निर्मल हो जाता है।
विश्व साहित्य में जितनी भी प्रेम की कविताएँ या कहानियाँ लिखी गई, वह राधा-कृष्ण के प्रेम के बिना अधूरी हैं। राधा-कृष्ण का प्रेम उतना ही सत्य है, जितना हम सबके मन में उमड़ा हुआ प्रेम का भाव…।
बरसों बाद जब कृष्ण द्वारिकाधीश बन गए, तब अपने अंतिम दिनों में राधा जी द्वारिका पहुँचीं। जब दोनों मिले तो शब्द मौन हो गए थे। दोनों अपने निर्झर बहते नयनों से संवाद करते रहे। कहा जाता है कि बार-बार कान्हा के पूछने पर कि “राधा क्या चाहिए…” लेकिन वह कहती रहीं “मुझे कुछ नहीं चाहिए…” लेकिन कृष्ण के आग्रह पर वह बोलीं, “मुझे अपनी बाँसुरी की वो धुन सुना दो कन्हैया…।”
कृष्ण जी ने राधा जी को वही धुन सुनाई, जो उन्हें बेहद प्रिय थी। दोपहर से रात तक वह बाँसुरी बजाते रहे थे। किंवदंती के अनुसार तो राधा जी अपनी देह त्याग कर कृष्ण जी में विलीन हो गईं। शोक में डूबे कृष्ण जी ने बाँसुरी तोड़ कर झाड़ी में फेंक दी। उसके बाद उन्होंने कभी बाँसुरी नहीं बजाई, क्योंकि प्रेम का समापन हो चुका था।
प्रेम भोग में नहीं, वियोग में है। कृष्ण जी ने रुक्मिणी, सत्यभामा को ऐश्वर्य का सुख निःसंदेह दिया, परंतु अलौकिक प्रेम का सुख राधा जी को ही मिला।