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राहुल गांधी की अंग्रेजी-भक्ति ?

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
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राजस्थान में राहुल गांधी ने अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई की जमकर वकालत कर दी। राहुल ने कहा कि भाजपा अंग्रेजी की पढ़ाई का इसलिए विरोध करती है कि वह देश के गरीबों, किसानों, मजदूरों और ग्रामीणों के बच्चों का भला नहीं चाहती है। भाजपा के नेता अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में क्यों पढ़ाते हैं ? राहुल ने जो आरोप भाजपा के नेताओं पर लगाया, वह ज्यादातर सही ही है लेकिन राहुल जरा खुद बताए कि वह खुद और उसकी बहन क्या हिंदी माध्यम की पाठशाला में पढ़े हैं ? देश के सारे नेता या भद्रलोक के लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में इसीलिए भेजते हैं कि भारत दिमागी तौर पर अभी भी गुलाम है। उसकी सभी ऊँची नौकरियां अंग्रेजी माध्यम से मिलती हैं। उसके कानून अंग्रेजी में बनते हैं। उसकी सरकारें और अदालतें अंग्रेजी में चलती हैं। भाजपा ने अपनी नई शिक्षा नीति में प्राथमिक शिक्षा को स्वभाषा के माध्यम से चलाने का आग्रह किया है, जो बिल्कुल सही है, लेकिन भाजपा और कांग्रेस दोनों की कई प्रांतीय सरकारें अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों को प्रोत्साहित कर रही हैं। किसी विदेशी भाषा को पढ़ना एक बात है और उसको अपनी पढ़ाई का माध्यम बनाना बिल्कुल दूसरी बात है। स्वभाषा के माध्यम से पढ़ने का अर्थ यह नहीं है कि, आप विदेशी भाषाओं का बहिष्कार कर दें। अंग्रेजी तो हम पर थोप ही दी जाती है। राहुल का यह तर्क सही है कि, गरीब और ग्रामीण वर्ग के बच्चे अंग्रेजी विद्यालयों में नहीं पढ़ते, इसलिए वे पिछड़ जाते हैं। वे भी अंग्रेजी पढ़ें और अमेरिका जाकर अमेरिकियों को भी मात करें। राहुल की यह बात मुझे बहुत पसंद आई, लेकिन हमारे कितनी विद्यार्थी अमेरिका या विदेश जाते हैं ? कुछ हजार छात्रों की वजह से करोड़ों छात्रों का दम क्यों घोंटा जाए ? जिन्हें विदेश जाना हो, वे साल-२ साल में उस देश की भाषा जरूर सीख लें, लेकिन किसी विदेशी भाषा को १६ साल तक अपनी पढ़ाई का माध्यम बनाए रखना और उसे करोड़ों बच्चों पर थोप देना कौन-सी अक्लमंदी है ? हिरण पर घास क्यों लादी जाए ? यदि हमारे नेता चाहते हैं कि, गरीबों, ग्रामीणों, पिछड़ों, किसानों और मजदूरों के बच्चों को भी जीवन में समान अवसर मिलें तो देश में सभी बच्चों के लिए स्वभाषा-माध्यम की पढ़ाई अनिवार्य होनी चाहिए। अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई पर कठोर प्रतिबंध होना चाहिए। विदेशी संपर्कों के लिए हमें सिर्फ अंग्रेजी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। विदेश-व्यापार, विदेश नीति और उच्च-शोध के लिए अंग्रेजी के साथ-साथ फ्रांसीसी, जर्मन, चीनी, रूसी, अरबी, हिस्पानी, जापानी आदि कई विदेशी भाषाओं की पढ़ाई भी भारत में सुलभ होनी चाहिए। दुनिया के किसी भी संपन्न और शक्तिशाली राष्ट्र में छात्र-छात्राओं की पढ़ाई का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।

परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

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