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विश्व में हिंदी का परचम लहराएँ

डॉ. आशा मिश्रा ‘आस’
मुंबई (महाराष्ट्र)
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भारत की आत्मा ‘हिंदी’ व हमारी दिनचर्या….

अनुपम है,
देवनागरी भाषा-
हिंद की आशा।

हिंदी से हम,
हिंदी ही स्वाभिमान-
हिंदी में प्राण।

नस-नस में,
प्यारी हिंदी समाई-
गर्व बढ़ाईI

हिंदी की बिंदी,
माँ का श्रंगार बिंदी-
प्यारी-सी बिंदी।

आज़ादी के बाद जब संपूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में बाँध कर रखने की आवश्यकता महसूस हुई तो ये उत्तरदायित्व हिंदी को दिया गया। १४ सितंबर १९४९ को हिंदी को राजभाषा के पद पर आसीन किया गया। साल १९७५ में १० जनवरी के दिन महाराष्ट्र के नागपुर में हिंदी को अलग पहचान दिलाने के लिए पहली बार ‘विश्व हिंदी सम्मेलन’ का आयोजन किया गया था,जिसमें ३० देशों के १२२ प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था। वर्ष २००६ में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने विश्व स्तर पर हिंदी का मान-सम्मान एवं पहचान बढ़ाने के लिए १० जनवरी का दिन ‘विश्व हिंदी दिवस’ के रूप में मनाए जाने की घोषणा की थी।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी की बढ़ती लोकप्रियता व स्वीकार्यता के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु देखिए-

संयुक्त राष्ट्र में बनी हिंदी वेबसाइट और शुरू हुआ हिंदी रेडियो का प्रसारण,चीन में भी बनी हिंदी वेबसाइट और शुरू हुआ हिंदी रेडियो का प्रसारण, अमेरिका से हर सप्ताह सम-सामयिक मुद्दों पर हिंदी में संवाद,अमेरिकी दूतावास से हिंदी की पत्रिका ‘स्पैन’ का प्रकाशन,फ़ेसबुक,गूगल,अमेजन आदि विदेशी संस्थानों में हिंदी का महत्व,सेज- आक्सफ़ोर्ड जैसे विश्व विख्यात प्रकाशकों द्वारा हिंदी प्रकाशन का शुभारंभ,भारत का ‘नमस्ते’ शब्द पूरी दुनिया में मशहूर एवं भारतीय नेताओं और राजनयिकों द्वारा विश्व पटल पर हिंदी भाषा में भाषण को देख कर इस बात का अन्दाज़ लग जाता है कि विगत कुछ वर्षों से हिंदी का वैश्विक मंच विशाल और समृद्ध होता जा रहा है। अब हिंदी एकदेशीय नहीं,अपितु बहुदेशीय भाषा का रूप ले चुकी है। हिंदी शब्दों ‘अच्छा’, ‘बड़ा दिन’, ‘बच्चा’, ‘सूर्य नमस्कार’ ‘चमचा’, ‘नाटक’, ‘जय’ आदि हिंदी शब्दों को आक्सफोर्ड शब्दकोश में शामिल किया गया है। हिंदी भाषा इतनी समृद्ध,सरल और सक्षम है कि हमारा सारा काम-काज सुचारू रूप से हिंदी में किया जा सकता है। यदि हम हिंदी भाषियों में अपनी भाषा के प्रति स्वाभिमान जग जाए तो हिंदी को विश्व स्तर पर प्रचलित होने से कोई भी नहीं रोक पाएगा।
मातृभाषा में भावाभिव्यक्ति उतनी ही आसान हो जाती है,जितनी सहजता से हम हर बात अपनी माँ से कह पाते हैं। हिंदी मात्र भाषा नहीं,बल्कि मातृभाषा है और दोनों में ज़मीन-आसमान का अंतर है। हिंदी भाषा सिर्फ़ भारत की पहचान नहीं है,बल्कि यह हमारे जीवन मूल्यों,संस्कृति एवं संस्कारों की सच्ची संवाहक,संप्रेषक और परिचायक भी है। हिंदी अनुवाद की नहीं,संवाद की और मौलिक सोच की भाषा है।
गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर जी ने कहा था कि-‘भारतीय भाषाएँ नदियाँ हैं और हिंदी भाषा महानदी है। भाषा वही जीवित रहती है,जिसका प्रयोग जनता करती है। हिंदी भाषा के माध्यम से शिक्षित युवाओं को रोज़गार के अधिक अवसर उपलब्ध हो सकें,इस दिशा में निरंतर प्रयास भी ज़रूरी है। केन्द्र और सरकार को दसवीं कक्षा तक ही नहीं,बल्कि बारहवीं कक्षा तक हिंदी भाषा और साहित्य को अनिवार्य भाषा बनाना चाहिए।
राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था कि ‘हिंदी पे तो हर कोई बात करना चाहता है लेकिन हिंदी भाषा में कोई बात नहीं करना चाहता। मौन शब्द न होने के कारण हिंदी के उच्चारण और लेखन की शुद्धता,निर्जीव वस्तुओं के लिए भी लिंग का निर्धारण,हर संबंध-रिश्ते के लिए अलग-अलग शब्द,इतना लचीलापन कि दूसरी भाषाओं को भी अपने अंदर आसानी से समा ले आदि अनेक ख़ूबियों से सुसज्जित है हमारी भाषा।हिंदी भाषा ना केवल भारत में ही बोली जाती है, बल्कि मॉरीशस,फिजी,संयुक्त राज्य अमेरिका, दक्षिण अफ़्रीका,यमन,युगांडा,सिंगापुर,नेपाल, न्यूज़ीलैंड और जर्मनी जैसे देशों के एक बड़े वर्ग में भी प्रचलित है। दुर्भाग्यवश यह जानते हुए भी कि हिंदी भाषा हमारे विचारों के आदान-प्रदान का एक सशक्त माध्यम है,हिंदी की महत्ता को उतना महत्व नहीं दिया जाता,जितने महत्व की वो अधिकारिणी है। हम यह भी जानते हैं कि हिंदी एक जीवित भाषा है,फिर भी इसके साथ ऐसा भेदभाव क्यों किया जाता है ?? नए-नए शब्दों को समाहित करने का गुण,बदलते समय के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलने का हौंसला इसकी जीवन्तता का प्रमाण है।
आज पूरी दुनिया में करोड़ों लोग हिंदी बोलते हैं। चीनी भाषा के बाद यह दूसरी ऐसी भाषा है जो इतनी बड़ी संख्या में बोली जाती है। इतनी लोकप्रिय भाषा होने के बावजूद पूरे विश्व में सिर्फ़ १३० विश्वविद्यालयों में हीं हिंदी पढ़ाई जाती है।हिंदी भाषा को अपने ही घर में,अपने ही देश में
श्वांस लेने में कठिनाई हो रही है।
महात्मा गाँधी का कथन-‘राष्ट्रभाषा के बिना देश गूँगा है’ अथवा कमलापति त्रिपाठी का कथन-‘हिंदी भारतीय संस्कृति की आत्मा है’ आज यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि अब ये बातें हम पर प्रभाव क्यों नही डालती ??
सरकार को हिंदी बचाओ कार्यक्रम का भी आयोजन करना चाहिए। हम सबको भी पूर्ण सहयोग करना होगा,अपने बच्चों को अधिक से अधिक हिंदी भाषा पढ़ने और समझने के लिए प्रेरित करना होगा,तभी हमारी हिंदी भाषा फलेगी-फूलेगी और आगे बढ़ेगी। फ़िल्म जगत जो हिंदी भाषा के माध्यम से अपनी रोज़ी-रोटी कमाता है, उनका भी यह दायित्व है कि वे हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में अपना हर संभव योगदान करें। हमें आशा ही नहीं,पूर्ण विश्वास है कि हिंदी भाषा को अपना महत्व अवश्य प्राप्त होगा और एक दिन हिंदी भाषा भारत की राष्ट्रभाषा कहलाएगी।
“निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल” इस बात को हमेशा ध्यान में रखकर ही हमें आगे बढ़ना है। बस इतना ही कहना है कि-
‘हिंदी बने व्यवहार व संस्कार की भाषा,
भविष्य की आशा व अमन की परिभाषा।’

परिचय–डॉ. आशा वीरेंद्र कुमार मिश्रा का साहित्यिक उपनाम ‘आस’ है। १९६२ में २७ फरवरी को वाराणसी में जन्म हुआ है। वर्तमान में आपका स्थाई निवास मुम्बई (महाराष्ट्र)में है। हिंदी,मराठी, अंग्रेज़ी भाषा की जानकार डॉ. मिश्रा ने एम.ए., एम.एड. सहित पीएच.-डी.(शिक्षा)की शिक्षा हासिल की है। आप सेवानिवृत्त प्रधानाध्यापिका होकर सामाजिक गतिविधि के अन्तर्गत बालिका, महिला शिक्षण,स्वास्थ्य शिविर के आयोजन में सक्रियता से कार्यरत हैं। इनकी लेखन विधा-गीत, ग़ज़ल,कविता एवं लेख है। कई समाचार पत्र में आपकी रचनाएं प्रकाशित हैं। सम्मान-पुरस्कार में आपके खाते में राष्ट्रपति पुरस्कार(२०१२),महापौर पुरस्कार(२००५-बृहन्मुम्बई महानगर पालिका) सहित शिक्षण क्षेत्र में निबंध,वक्तृत्व, गायन,वाद-विवाद आदि अनेक क्षेत्रों में विभिन्न पुरस्कार दर्ज हैं। ‘आस’ की विशेष उपलब्धि-पाठ्य पुस्तक मंडल बालभारती (पुणे) महाराष्ट्र में अभ्यास क्रम सदस्य होना है। लेखनी का उद्देश्य-अपने विचारों से लोगों को अवगत कराना,वर्तमान विषयों की जानकारी देना,कल्पना शक्ति का विकास करना है। इनके पसंदीदा हिन्दी लेखक-प्रेमचंद जी हैं।
प्रेरणापुंज-स्वप्रेरित हैं,तो विशेषज्ञता-शोध कार्य की है। डॉ. मिश्रा का जीवन लक्ष्य-लोगों को सही कार्य करने के लिए प्रेरित करना,महिला शिक्षण पर विशेष बल,ज्ञानवर्धक जानकारियों का प्रसार व जिज्ञासु प्रवृत्ति को बढ़ावा देना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति विचार-‘हिंदी भाषा सहज,सरल व अपनत्व से भरी हुई भाषा है।’

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