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‘समय’ नहीं है…

हरिहर सिंह चौहान
इन्दौर (मध्यप्रदेश )
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‘समय’ के पहिए से आगे निकलने की वर्तमान में हर किसी की चाह होती जा रही है। ज़िन्दगी में रफ्तार का हर एक परिदृश्य मनुष्य को आपा-धापी के बीच में ले जाता है। जीवन चलता तो है पर उसे इन भौतिकवादियों के शिकंजे ने तेज बना डाला है। समय ने बहुत कुछ सिखाया है और झूठ की बोली बोलना भी। हम सबको बता भी दिया है कि समय नहीं है। इसमें सबसे बड़ी भूमिका मोबाइल फोन की ही है, जो बिगाड़ रहा है। जैसे-आदमी घर पर ही रहता है और बोल देता है कि “मैं बाजार में हूँ, अभी देर लगेगी आने में।” इंतजार के लम्हे भी बहुत देर से पूरे होते हैं। ऐसे तो जीवन-यापन करने के लिहाज से कर्म और काम दोनों जरूरी होते  हैं, पर जो झूठे वादों की पतंगें आसमान में उड़ा रहे होते हैं, उनसे दिलों में छेद हो जाते हैं और नफरत पनप जाती है।
         इस समय इंसान ने अपने-आपको ‘समय यंत्र’ (टाईम मशीन) बना डाला है। टिक-टिक कर वह घड़ी चलाती है, जैसे-साँसें कब थम जाएं, किसी को पता नहीं है। फिर भी झूठ, फरेब, चोरी, लालच के चक्कर में मनुष्य घिरा हुआ है। वह अपने सच्चे जीवन को ऐसे ही समाप्त कर देता है और कहता कि समय नहीं है…। पुराने जमाने में समय ही समय रहता था, २ वक्त की रोटी, घूमना-फिरना और बच्चों के विद्यालय जाना, दोस्तों के साथ मस्ती-मजाक करना, फिर घर पर दादा-दादी, काका-काकी, नाना-नानी, बुआ के साथ खेलना, अच्छी-अच्छी बातें सीखना। अब इस नये जमाने में यह सब ना जाने कहाँ खो गया है! अब तो बच्चे भी बोलते हैं “समय नहीं है।” अब सुबह तो शाला, दोपहर घर, फिर कोचिंग, शाम को मोबाइल, फिर पढ़ाई। बाहर घूमना-फिरना, मौज-मस्ती, सब चारदीवारी के अंदर सीमित हो गया है, और कहते हैं “समय नहीं है।”
       घर के बड़े लोग भी अब आधुनिकता के शिकंजे में घिरते जा रहे हैं। अपने आसपास, अड़ोस-पड़ोस में मिलना-जुलना, बातचीत सब न-जाने कैसे खत्म हो गया है। इस बोल-चाल को मोबाइल की इस ज़िंदगी ने गुमराह कर दिया है। शहरों में अब परिवारों की भीड़ संयुक्त रहने की कड़ी में अब अकेले-अकेले रहने-खाना बनाने के लिए एक घर में अलग-अलग चूल्हों का जलना मानो नव आजादी का प्रतीक बन गया है। बहू ‘रानी’ की अभिव्यक्ति है। मिल-जुलकर काम करने में बहू-बेटियों को अच्छा नहीं लगता, क्योंकि वह कहती है कि “इतने लोगों का खाना बनाने का समय किसके पास है, जो हम पूरे परिवार का काम करें!”
     लोग अकेले रहने में अपने-आपको धन्य समझते हैं, पर दु:ख-तकलीफ़, दर्द, मुश्किल में परिवार ही याद आता है, किन्तु संस्कृति और आधुनिकता के कारण मनुष्य गुमनामी के अंधेरे में भाग रहा है और कहता है “समय नहीं है।”
खेल-खिलौने, गुड्डे-गुड़ियों का वह संसार एक मोटी-सी परत के नीचे दब गया है और मोबाइल के अंदर ही सब कुछ समा गया है। यही नकारात्मक पहलू मनुष्य से मनुष्य को दूर करने में सहभागी है। इसी लिए तो सभी कहते हैं “समय नहीं है।”
किसी व्यक्ति का स्वर्गवास हो जाए और उसकी शवयात्रा का समय सुबह १० बजे रखा गया हो तो वहाँ आने वाले लोगों की हलचल साढ़े ९ बजे से ही होने लगती है। और कौन आने वाला है, कितनी देर और लगेगी, बुआ जी नहीं आई…! अरे उन्हें तो हवाईजहाज से आना था… रात से बैठी है ट्रेन में, इतना समय हो गया अभी तक नहीं आई ? अरे भैय्या मुझे आफिस भी तो जाना है, लेट हो जाएंगे। न जाने अभी श्मशान घाट पर और कितनी देर लगती है! यह दृश्य आम है, क्योंकि लोगों के पास समय नहीं है। तभी तो अब देखने में आता है कि लोग शवयात्रा में कम और उठावने में तीसरे दिन आना ठीक समझते हैं।अब वहाँ भी चलित उठावने का दौर ज्यादा है। ५-१० मिनट में चेहरा दिखा देते हैं और खड़े-खड़े चल देते हैं, क्योंकि बैठक में जाना है, समय नहीं है। बड़े-बड़े शहरों व महानगरों में इन सभी प्रकार की शवयात्रा व उठावना आदि के लिए संस्था शुरू हो गई है। एक फोन पर सभी कार्य के लिए जानकार आदमी सभी उपलब्ध हो जाते हैं ?, क्योंकि जान-पहचान वाले व रिश्तेदार आ नहीं आ पाते हैं, वजह कि साहब अब तो अपने वालों के पास इतना समय ही नहीं है। मोबाइल के पर्दे पर ही भाव-भीनी श्रद्धांजलि व ॐ शांति या शत-शत नमन कर इतिश्री करने का जमाना आ गया है, क्योंकि समय नहीं है…।
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