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‘स्टडी इन इंडिया’ से क्या हासिल होगा ?

ललित गर्ग
दिल्ली
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आजकल की शासन व्यवस्थाएं लोक कल्याणकारी एवं संवेदनशील न होकर आर्थिक एवं राजनीतिक प्रेरित होती जा रही है। शिक्षा एवं चिकित्सा जैसी मूलभूल जरूरतों के लिए भी सरकारों का नजरिया अर्थ-प्रदान होता रहा है। स्वास्थ्य और शिक्षा के निजीकरण की हमें भारी कीमत चुकानी पड़ी है। विडम्बना देखिए कि, देश के बच्चों को समुचित शिक्षा उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं और विदेशी बच्चों को उन्नत शिक्षा देने के लिए व्यापक प्रयत्न किए जा रहे हैं। विदेशी छात्रों के लिए सरकार ने नए पोर्टल ‘स्टडी इन इंडिया’ को शुरू किया है। इसके जरिए अंतरराष्ट्रीय छात्र-छात्राओं को देश के शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। केंद्रीय शिक्षा मंत्री और विदेश मंत्री ने इस पोर्टल की शुरुआत करते हुए इसे देश को शिक्षा के क्षेत्र में ब्रांड इंडिया की एक मजबूत अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति स्थापित करने का माध्यम बताया है। निश्चित ही यह भारत की समृद्धि एवं विश्व प्रतिष्ठा की दृष्टि से अनूठा उपक्रम हो सकता है, लेकिन प्रश्न भारतीय छात्रों का है, उनकी शिक्षा से जुड़ी समस्याओं का है। महंगी होती शिक्षा आम जन-जीवन से दूर होती जा रही है, ऐसे में भारतीय छात्रों की सुध कौन लेगा ?
‘स्टडी इन इंडिया’ राष्ट्रीय शिक्षा नीति द्वारा निर्देशित है। यह भारत को पसंदीदा शिक्षा गंतव्य बनाने के साथ-साथ समृद्ध भविष्य को आकार देने के लिए सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाता है, लेकिन उच्च शिक्षा के वंचित भारतीय छात्रों के लिए यह किस तरह हितकारी एवं उपयोगी है ? ‘स्टडी इन इंडिया’ वेबसाइट पर शैक्षणिक कार्यक्रमों की जानकारी देगा। इसमें शैक्षणिक सुविधाओं, शोध सहायता से संबंधित जानकारी भी उपलब्ध कराई जाएगी, लेकिन यह सब विदेशी छात्रों के लिए होगा। देश में शिक्षा के स्तर के सुधार की दिशा में किए जा रहे प्रयासों के बीच इस हकीकत से भी मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि, दुनिया के शीर्ष १०० उच्च शिक्षण संस्थानों में भारत से एक भी नाम नहीं है। आज भी सक्षम परिवारों की उच्च शिक्षा के लिए पहली पसंद विदेश के शिक्षण संस्थान बने हुए हैं। फिर किस तरह हम विदेशी छात्रों को आकर्षित करेंगे, अगर आकर्षित कर भी लिया तो क्या वह भारतीय छात्रों के साथ नाइंसाफी नहीं होगी ? संसाधनों की कमी और बेहतर शिक्षकों के अभाव से जूझ रही भारत की उच्च शिक्षा ‘स्टडी इन इंडिया’ से क्या हासिल कर लेगी, एक बड़ा सवाल है।
शिक्षा और चिकित्सा को व्यवसाय बना देने एवं निजी हाथों में सौंप देने से ही दोनों महंगी हुई है, आम आदमी तक उसकी पहुंच जटिल होती गई है। इस बात पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने चिन्ता जताते हुए कहा कि, ‘शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों ही हर व्यक्ति की मूलभूत जरूरत है, पर दोनों ही महंगी और दुर्लभ हो रही हैं। इसकी वजह जनसंख्या के मुताबिक उपलब्धता की कमी और व्यावसायिकता है।’
जब हम देश के लोगों को ही समुचित शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं तो, विदेशों के लिए दरवाजें खोलना एवं उन पर सरकार की बड़ी शक्ति का खर्च होना कैसे औचित्यपूर्ण हो सकता है ? यह सरकार की मंशा पर एक सवालिया निशान है।
पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम २०२० तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का सपना देखते थे। आजादी की ५७वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए उन्होंने शिक्षा पर जोर देते हुए कहा था कि, ‘भारत अगले १६ वर्षों में विकसित राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में है और शिक्षा के बिना यह संभव नहीं है। समृद्धि और विकास के लिए शिक्षा सबसे जरूरी तत्व है। शैक्षिक सुविधाओं तक हर व्यक्ति की पहुंच अत्यंत आवश्यक है। गाँवों और गरीब परिवार के लिए शिक्षा आसानी से उपलब्ध नहीं है। भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद का ६-७ प्रतिशत तक शिक्षा पर खर्च करना चाहिए।’
शिक्षा पर लंबे-लंबे भाषण देने वाले राजनेता, शिक्षाविद, अधिकारी और मंत्री भी देश की इन स्थितियों से परिचित हैं। बसों में मूंगफली बेचते हुए, स्टेशनों पर भीख मांगते हुए, चौराहों पर भुट्टा भूंजते हुए, फैक्ट्रियों में बिसलरी की बोतलों में पानी भरते हुए, सड़क के किनारे टाट पर सब्जी बेचते या चाट का ढेला लगाते हुए इन बच्चों को कौन नहीं देखता है। ऐसा इन्हें क्यों करना पड़ता है ? यह जानने की कोशिश कितने लोग करते हैं ? नीति-नियंता लोग अपने निजी चालक, नौकर या कामवाली बाई की पारिवारिक स्थिति के बारे में भी विचार कर लेते तो भी इस तरह की स्थितियों के बारे में बहुत कुछ आसानी से समझ लेते। इन स्थितियों में कैसे नया भारत-सशक्त भारत आकार ले सकेगा ? क्या ‘स्टडी इन इंडिया’ जैसी दूरगामी योजनाएं इन बच्चों के मुँह पर करारा तमाचा नहीं है ?
तमाम सरकारी प्रयासों एवं योजनाओं से शिक्षा महंगी होती जा रही है, तो देश का निम्न एवं मजदूर वर्ग यह सोचने को मजबूर है कि वह अपने बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था कैसे करे। निजी महाविद्यालयों में तो इतना अधिक पैसा लगता है कि, मध्य वर्ग के भी कान खड़े हो जाते हैं, तो फिर निम्न वर्ग की बात ही क्या ?
सरकार का असली मकसद तो उच्च शिक्षा को कार्पोरेट घरानों को सौंपना है, विदेशी विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों को भारत में स्थापित करना है, जिससे उच्च शिक्षा भी सरकार के लिए खर्च करने की बजाय मुनाफा बनाने वाला उद्योग बन सके। दुर्भाग्य से शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी निवेश में लगातार कमी आई है। वैसे कहा जाता है कि निजीकरण की प्रक्रिया से प्रतिस्पर्धा की भावना को बढ़ावा मिलता है और विकास के लिए यह बहुत जरूरी है। यह मिथ्या प्रचार ही लगता है, क्योंकि अगर भारत की बात करें तो निजीकरण की प्रक्रिया से एकाधिकार, उपेक्षा, शोषण और महंगाई को बढ़ावा ही मिला है। देश के वंचितों को इस निजीकरण की प्रक्रिया से फायदे की जगह भारी नुकसान हो रहा है। अब ‘स्टडी इन इंडिया’ जैसे कार्यक्रमों से शिक्षा के अधिक विसंगतिपूर्ण एवं असंतुलित होने की ही संभावना है।