डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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बो दिए हैं हमने,
हम और वो के बीज
काँटेदार झाड़ियाँ,
लोहे की बाड़
समानांतर सोचों की ऊँची फेंसिंग-
धीरे-धीरे वो ऊँचाई पा गई है,
जिससे अब कोई देख न सके आर-पार।
उधर बड़े हो गए हैं ‘वो’,
इधर हम भी बड़े ‘हम’ बनते जा रहे हैं
अब दोनों को अलग-अलग खूंटों से बांधकर,
वैचारिक चारा खिलाया जा रहा है
हर दिन हमें नई अफ़ीम दी जाती है –
भ्रम की, श्रेष्ठता की, पीड़ा की, पीढ़ियों की।
और फिर
झूठा आइना पकड़ाया जाता है-
“देखो… ये तुम हो! वो वो है!!”
लेकिन आइने में शक्लें तो…
अरे यार, शक्लें तो एक जैसी हैं!
वो भी इंसान लगते हैं!
कसम से, कान, आँख, दिल-सब है उनके पास भी।
लेकिन नहीं…
“इंसान-विंसान कोई नहीं होता!”
इंसानियत की बात मत करो, दोस्त…
यहाँ इंसानियत उसी में है, कि
अगर तुम ‘हम’ नहीं हुए
तो ‘वो’ वाले बाड़ के पार फेंक दिए जाओगे।
बाबा आदम की बस्ती से,
ब्ला-ब्ला राष्ट्रवाद तक हम चले आए हैं
इतिहास में जितना वक्त हमने
‘हम’ बनने में खर्चा,
उससे ज़्यादा वक्त इस जुगत में लगा दिया कि
‘वो’ कभी ‘हम’ न बन जाए।
और जब-जब कोई पूछता है-
“ये बाड़ कब टूटेगी ?…”
हम बस इतना कहते हैं-
“जब हमारे भीतर की दीवार टूटेगी।”
फिलहाल तो साहब,
बाड़ भी खड़ी है
सोच भी सड़ी है,
और हम…
बस ‘हम’ बने घूम रहे हैं।
कभी ‘वो’ को गले लगाकर देखना,
शायद दिल भी एक ही ताल पर धड़के…।
और ज़रा हमें भी सुकून आए-
कि बाड़ के इस पार भी कोई जी रहा है॥