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हिन्दी सिनेमा में नया दौर शुरू किया इरफ़ान खान ने

रोशन कौशिक
लखनऊ (उप्र)
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“ये शहर जितना हमें देता है, उससे अधिक छीन लेता है” और “मुहब्बत थी, इसलिए जाने दिया, ज़िद होती तो…” ये संवाद किसी और के नहीं, बल्कि आँखों से अदाकारी करने वाले अपने ख़ान साहब के हैं। यानी ज़नाब इरफ़ान ख़ान के।
साल २०१६ की बात है। मैं दिल्ली जाने के लिए तैयार हो रहा था। ज़ुबान पर एक ही गीत अपने-आप बज रहा था..-‘मासूम-सा ! मेरे आस-पास था वो… मासूम-सा..।’
दरअसल, उस दिन मैंने मोबाइल पर उस साल प्रदर्शित हुई फ़िल्म ‘मदारी’ को देखा था। पहले इसके शीर्षक को पढ़कर लगा, न जाने कैसी होगी ये! क्या कहानी होगी ? अजीब-सा ख़्याल आ रहा था, लेकिन, अंत में मैंने मन बनाकर इसको देखने का इरादा कर ही लिया। सच कहूँ तो ‘मदारी’ ने उस दिन मुझे भीतर से झकझोर दिया था। कहानी इतनी दमदार थी कि क्या ही कहें। सब-कुछ अच्छा था, लेकिन इरफ़ान ख़ान की बेजोड़ अदाकारी ने इस फ़िल्म को यादगार बना दिया। इरफ़ान ने अपने अंदाज़ में हमें बताया कि एक आम आदमी जब व्यवस्था की दबंगई और नाकामियों का शिकार होता है तो उस परिस्थिति में उसके भीतर का मदारी क्या-क्या सोच सकता है। एक मदारी अपना खेल दिखाकर लोगों का मनोरंजन करता है। लोगों के मनोरंजन से उसके परिवार को दो जून की रोटी नसीब होती है। फिल्म ‘मदारी’ के निर्देशक ने शाय़द काफ़ी शोध करने के बाद इरफ़ान ख़ान को इस किरदार के लिए पूर्ण समझा होगा।
मुझे उस फ़िल्म को देखने के बाद पहली बार पता चला कि हर आदमी के भीतर एक मदारी छुपा होता है। अगर मैं इस वाकिए को आज क़रीब ८-९ साल बाद लिख रहा हूँ तो इसके पीछे का सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही कारण है, और वो है इरफ़ान खान की अविस्मरणीय अदाकारी। मैं इरफ़ान ख़ान का प्रशंसक तो हूँ, लेकिन उनकी शख्सियत का भी प्रशंसक हूँ। इरफ़ान ने ‘मदारी’ में एक लाचार, लेकिन हिम्मती पिता का किरदार निभाया था। एक ऐसा पिता, जिसकी सारी दुनिया उसके इकलौते बेटे के इर्द-गिर्द घूमती है। एक ऐसा पिता, जो एक ही वक्त पर बाप भी है और माँ भी। उस पिता की दुनिया एक दिन आँख झपकते ही बर्बाद हो जाती है। उसके सारे ख़्वाब, उसका सारा त्याग चुटकियों में ख़ाक़ में मिल जाता है। उस लाचार बाप को एक दिन यह पता चलता है, कि उसकी दुनिया को कुदरत ने नहीं, बल्कि ‘इन्सानियत’ के सौदागरों ने बर्बाद किया है; तो उसके भीतर का सोया हुआ ‘मदारी’ अचानक से जाग उठता है। फ़िर यहीं से शुरू होता है आम आदमी का खेल।
इरफ़ान ख़ान की मैंने लगभग सभी फिल्में देखी हैं। उन्होंने अपने हुनर और विराट व्यक्तित्व के बल पर बॉलीवुड के भीतर पल रहे भ्रम को तोड़कर रख दिया था। उन्होंने दुनिया को दिखाया था कि कैसे एक साधारण-सा दिखने वाला दुबला-पतला लड़का जिसकी लंबाई क़रीब ६ फुट के आस-पास है और जिसकी आँखें मानो निकल कर बाहर गिरने को छटपटा रही हैं; उसने अपनी बेजोड़ अभिनय क्षमता के बलबूते माया नगरी में अपनी धाक जमा ली है। यह इरफ़ान के दमदार अभिनय और मुख भाव का ही कमाल था कि छोटे-बड़े हर प्लेटफॉर्म पर लोग उनके अभिनय की नक़ल उतारते हुए देखे जाते हैं। इरफ़ान की बेमिसाल अदाकारी के पीछे उनका उदारवादी दृष्टिकोण छुपा हुआ था। वे बड़े अभिनेता होने के साथ-साथ एक बेहतरीन इन्सान भी थे। वे रंगमंच की दुनिया के बादशाह थे।
कभी-कभी सोचकर दुखी हो जाता हूँ कि इरफ़ान ख़ान जैसे बड़े कलाकार को पहचानने में बॉलीवुड के जौहरियों को इतना वक्त कैसे लग गया ? सच में, इरफ़ान ने बड़े पर्दे पर आने के लिए ख़ूब पापड़ बेले होंगे। ख़ैर, हुनरमंद इंसान के रास्ते में रोड़े तो आ सकते हैं, लेकिन उसके हुनर को अधिक दिनों तक दबाया नहीं जा सकता। टी.वी. धारावाहिक के छोटे-छोटे किरदारों से उन्होंने आखिरकार बॉलीवुड के दरवाज़े पर दस्तक दे ही दी। मैं तब छोटा था, विद्यालय में पढ़ रहा था, जब
‘हासिल’ और ‘मक़बूल’ जैसी फिल्मों ने सिनेमाघरों में सबका ध्यान खींचा। पूर्वांचल की छात्र राजनीति पर बनी ‘हासिल’ के निर्देशक थे मशहूर तिग्मांशु धूलिया। उस दौर में पूरे पूर्वांचल सहित हिंदी पट्टी के अन्य हिस्सों में छात्र राजनीति सबका ध्यान आकर्षित करती थी। तब गोली-कट्टों की आवाजें यदा-कदा चर्चा में बनी ही रहती थी। चूंकि, तिग्मांशु धूलिया का नाता पूर्वांचल और इलाहाबाद विवि से भी रहा है तो ऐसे में उन्होंने भी एक जानदार कहानी को ‘हासिल’ के रूप में दर्शकों के बीच रखने में देरी नहीं की। ‘हासिल’ भी उसी छात्र राजनीति को बयां करती है; जिसमें रणविजय सिंह के किरदार में एक तरफ इरफ़ान ख़ान ने तो वहीं दूसरी ओर गौरी शंकर पाण्डेय की भूमिका में सनसनीखेज अभिनेता आशुतोष राणा ने हर किसी का दिल जीत लिया था। यहाँ कुछ आलोचक इसे उस दौर की ब्राह्मण बनाम क्षत्रिय राजनीति से जोड़कर देखने में परहेज़ नहीं करते। एक दौर ऐसा भी होता था जब छात्र राजनीति के दम पर सत्ता तक पहुंचने का रास्ता तलाशा जाता था। इस तरह की राजनीति में ‘जाति और बाहुबल’ को आधार बनाकर खेल खेला जाता था। इस मामले में पूर्वांचल का अपना सुनहरा इतिहास रहा है।
अगर ‘हासिल’ को भी गौर से समझें तो यही मालूम चलता है कि यह अप्रत्यक्ष रूप से ब्राह्मण बनाम ठाकुर के छात्र खेमे के राजनीतिक दांव-पेंच को स्पष्ट रूप से दिखाने का प्रयास करती है; वो भी तिग्मांशु धूलिया, इरफ़ान, आशुतोष व जिम्मी शेरगिल जैसे मंझे हुए अभिनेताओं के प्रयोग के माध्यम से। यह एक बेहतरीन फ़िल्म थी। इसके बाद इरफ़ान खान को दुनियाभर में पहचान मिलने लगी। यह उनके उम्दा अभिनय का ही क़माल था कि उन्हें ‘हासिल’ में नकारात्मक भूमिका के लिए ‘बेस्ट एक्टर ऑफ द इयर’ का फिल्म फेयर अवार्ड मिला। वैसे, इरफ़ान ख़ान की प्रतिभा किसी ईनाम की मोहताज नहीं थी, लेकिन इस पुरस्कार ने उनके भीतर के आत्मविश्वास को बढ़ाने का काम ज़रूर किया। इसके बाद २००४ में अपराध नाटक पर बनी एक और फ़िल्म आई। उसका निर्देशन मशहूर निर्देशक विशाल भारद्वाज ने किया था, नाम था ‘मक़बूल’। मक़बूल इरफ़ान, पंकज कपूर और तब्बू की तिकड़ी का प्रतिनिधित्व करती है। इस फिल्म की सबसे बेहतरीन बात यह थी कि इसमें बॉलीवुड के मंझे हुए उन कलाकारों की भीड़ थी, जिन्होंने अपनी काबिलियत के दम पर थिएटर की दुनिया से निकल कर हिन्दी सिनेमा में अपना मुकाम हासिल किया था। इरफ़ान ने ‘मक़बूल’ के किरदार के साथ बखूबी इंसाफ़ किया। ‘मक़बूल’ में पंकज कपूर ने जहांगीर खान उर्फ अब्बा जी के रोल में जान डाल दी थी। पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी और पीयूष मिश्रा जैसे कलाकारों को अच्छी तरह से पता था कि इरफ़ान खान उसी खान का हीरा है, जिस हीरे की खान में नसीरुद्दीन शाह, पंकज कपूर और ओमपुरी जैसे दिग्गज अभिनेताओं को तराशा गया था। इरफ़ान और तब्बू की जोड़ी ने दर्शकों को ख़ूब प्रभावित किया। उनके बीच की स्लो केमिस्ट्री और ऊपर से पंकज कपूर के कसे हुए संवाद दर्शकों को तालियाँ बजाने पर मज़बूर करते हैं। इस फिल्म ने भले ही बॉक्स ऑफिस पर सैकड़ों करोड़ का व्यापार न किया हो, लेकिन अंतरराष्ट्रीय पटल पर सुर्खियाँ जरूर बटोरीं। ‘मक़बूल’ ने इरफ़ान को बॉलीवुड की चमक-दमक वाली दुनिया में गंभीर अभिनेता के रूप में स्थापित कर दिया। इस फिल्म के बाद इरफ़ान ख़ान के करियर में सफलता और सुर्खियाँ साथ-साथ मिलने लगी।
मुझे सिनेमा पर लिखने का शौक़ पढ़ाई-लिखाई के दिनों से ही रहा है। मैंने कम उम्र में ही समानान्तर धारा की ढ़ेरों फिल्में देख ली थी। इसलिए, स्वतन्त्र पत्रकारिता करते हुए मुझे अन्य क्षेत्र के साथ-साथ सिनेमा से मोह बना रहा। हालांकि, मेरी इरफ़ान ख़ान से कभी मुलाक़ात नहीं हुई थी, पर लगता था कि मानो उन्हें मैं बरसों से जानता हूँ। मुझे लगता था कि एक दिन मैं इरफ़ान का साक्षात्कार ज़रूर लूंगा। दरअसल, हम सब इन्सान हैं। इन्सान होने की पहली शर्त है कि आपके भीतर ‘इन्सानियत’ निरोगी बनकर फलती-फूलती रहे। ‘इन्सानियत’ ही एकमात्र ऐसी धारा है, जिसमें बहकर बुरी से बुरी धारणाएं दम तोड़ देती हैं।
इरफ़ान ख़ान अमीरी में पले-बढ़े थे। बड़प्पन उनके संस्कारों का हिस्सा था। वे भीड़ में खोने में यक़ीन नहीं रखते थे। उनकी कोई फिल्मी पृष्ठभूमि नहीं थी। मुझे मीडिया सूत्रों से ही पता चला कि शुरू में वे क्रिकेटर बनना चाहते थे। बहुत ही अच्छा क्रिकेट खेलते थे, पर तक़दीर ने उनके लिए कुछ और ही बंदोबस्त कर रखा था। ख़ैर, जहां भी रहे, ऊंचे मुकाम पर रहे।
उनकी ‘तलवार’ फिल्म देखने के बाद मैंने फ़ैसला किया कि इरफ़ान के करियर पर थोड़ा गहराई से अध्ययन किया जाना चाहिए। उन्होंने अपने शुरूआती सफ़र में पंकज कपूर के साथ फिल्मों में काम किया। जिन्हें समानान्तर फिल्मों की गहरी समझ है, वो इस बात को आसानी से बता सकते हैं कि इरफ़ान को अधिक दिनों तक फिल्मी दुनिया के बड़े पर्दे पर आने से रोकना नामुमकिन था। इरफ़ान साल १८८९-९० में पंकज कपूर के साथ २ फिल्मों में दिखे- ‘कमला की मौत’ और ‘एक डॉक्टर की मौत।’ इन दोनों फिल्मों में इरफ़ान खान भले ही पंकज कपूर के सामने कम आँके गए हों, किंतु छोटे से किरदार में इतना तो जरूर बता दिया था कि वे लंबी दौड़ के घोड़े हैं। उनका रूक-रूक कर बोलने का लहज़ा, आँखों से बातों को जबरदस्ती मनवाने की अदा उस दौर में भले ही नयी व अजीब लगी थी, पर इसी अदा ने इरफ़ान खान को लोगों के ज़हन में अभी तक ज़िंदा रखा है।
ज़िंदगी में यह तमन्ना थी कि एक बार उनसे जरूर मिलूंगा, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है ? इरफ़ान अपनी धुन में जीने वाले इंसान थे। सच कहूँ तो उन्होंने हिन्दी फिल्मों के ऊपर एहसान किया है। इरफ़ान ने बॉलीवुड की रूढ़िवादी चुनौती को न सिर्फ़ स्वीकार किया, बल्कि उसे तोड़कर भी रख दिया। इरफ़ान ने सिखाया कि सूरत नहीं, सीरत देखी जाती है।
इरफ़ान ख़ान अभिनय का विश्वविद्यालय कहे जाने वाले ‘नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा’ के गुलाब थे। इस कारण उनके अभिनय में खुशबू ही खुशबू बिखरी हुई नज़र आती थी। मेरे दौर के बच्चे अधिकतर अजय देवगन, सलमान खान, शाहरुख खान, गोविंदा, अक्षय कुमार व संजय दत्त जैसे कलाकारों की फिल्मों को देखने के शौकीन थे, पर न जाने क्यूं मुझे समानान्तर सिनेमा से कुछ अधिक लगाव था। इरफ़ान ख़ान के अलावा पवन मल्होत्रा, संजीव कुमार, मनोज वाजपेयी, शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल, दीप्ति नवल और फारूक शेख जैसे कलाकारों को देखने का अलग मज़ा आता था। एक बार की बात है, विद्यालय में पढ़ रहा था। क्रिकेट खेलने के बाद दोस्तों के साथ ‘कसूर’ फिल्म में उदित नारायण के कुछ बेहतरीन गानों को सुनने-देखने के लिए मैं थिएटर में चला गया था। उदित नारायण, कुमार सानू और सुखविंदर सिंह, के.के., ए.आर. रहमान और अज़ीज़ के गानों का दीवाना था। हालांकि, आफताब शिवदासानी को मैं पहले १-२ फिल्मों में देख चुका था। इरफ़ान ख़ान को भी पहले दूरदर्शन पर देख चुका था, पर तब उनका नाम मुझे पता नहीं था। उस समय मोबाइल भी तो नहीं था न! दोस्तों के साथ मैं ‘कसूर’ देख रहा था। सुमधुर गाने वो भी उदित नारायण की आवाज में सुनते ही दिल झूम उठता। बहरहाल, फिल्म के कुछ हिस्सा बीतने के बाद मैं देखता हूँ कि एक ६ फुट का अभिनेता आता है। उसकी आँखें देखकर ऐसा लगता कि अब वो निकलकर बाहर आ जाएंगी और जिसकी संवाद शैली में कभी दरिया-सा ठहराव तो कभी तेज तूफ़ान की आहट थी। मैं तब सब-कुछ भूलकर इरफ़ान के हर दृश्य, हर संवाद को ध्यान से देखने लगा। चूंकि, मैं बचपन से ही साहित्य, क्रिकेट व फिल्मों को बड़े चाव से पढ़ता-देखता-सुनता आ रहा हूँ।
मुझे फिल्मों में भी समानांतर सिनेमा बहुत पसंद है। माहौल यह हो गया था कि अब मुझे इरफ़ान खान की पुरानी फिल्मों को देखने की धुन सवार हो गई थी। सिनेमाघरों में वो सब यदा-कदा ही लगती थीं। मोबाइल और यू-ट्यूब की दुनिया की कल्पना भर से भी मैं हजारों किमी दूर था, पर तब हमारे पास वीसीआर के साथ सीडी व डीवीडी का विकल्प शेष था। उस समय इरफ़ान ख़ान की ‘हासिल’ और ‘रोग’ जैसी बेहतरीन फिल्में मुझे इरफ़ान ख़ान के अभिनय पर शोध करने के लिए आमंत्रित कर चुकी थीं। मैं उनकी फिल्मों को देखने के बाद फिर मनोज वाजपेयी की फिल्में देखता। मेरी दिली तमन्ना थी कि इरफ़ान और मनोज एकसाथ किसी फिल्म में काम करें। चूंकि, मैं अपने तरीके से गुणा-भाग लगाने का शौक़ीन था। मैं स्कूल में बैठे हुए सोचता कि काश! कभी अजय देवगन और शाहरुख खान एकसाथ किसी फिल्म में काम करें तो फ़िर अलग माहौल होगा। मैं फिर गणित लगाता कि एक बार अमिताभ बच्चन और नसीरुद्दीन शाह को किसी फ़िल्म में आमने-सामने जरूर आना चाहिए। यहाँ तक कि मैं सोचने लगा था कि काश! एक बार राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन ने भी ‘देवदास’ कर ली होती तो आज इतिहास कुछ और ही होता!
आप ‘पान सिंह तोमर’ जैसी बायोपिक में भी इरफ़ान को देखने के बाद उनके अभिनय की तारीफ किए बिना नहीं रह पाते हैं। आख़िर ऐसा क्या था इरफ़ान ख़ान के अभिनय में ? इस फ़िल्म ने इरफ़ान खान को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार दिलवाया। इसको भी तिग्मांशु धूलिया ने निर्देशित किया था। इस फ़िल्म में अपने संजीदा अभिनय के माध्यम से इरफ़ान ने बीहड़ की कंकरीली-पथरीली राहों पर बाग़ी बनकर संघर्ष करने वाले एक सिपाही की कहानी को जीवंत बना दिया था।

इरफ़ान ख़ान की एक बड़ी खासियत थी। वे अपने आलोचकों का ज़वाब चिल्लाकर नहीं, बल्कि अपने काम से देते थे। उनके काम को देखकर सबका मुँह बंद हो जाता था। ये उनके सशक्त अभिनय का कमाल ही था कि ‘द नेमसेक, साहब, बीबी और गैंगस्टर रिटर्न्स, डी डे, पीकू, हैदर, जज्बा और तलवार जैसी फ़िल्में दर्शकों के जहन में आज भी ताजा हैं। वहीं, फिल्मों से पहले इरफ़ान ने कुछ टी.वी. धारवाहिक में भी काम किया था। इनमें श्रीकांत, चाणक्य, चंद्रकांता इत्यादि हैं।
इरफ़ान ख़ान ज़िन्दादिल इंसान, उम्दा कलाकार होने के साथ-साथ बेहतरीन इंसान भी थे। यह बात उनके प्रशंसक और आलोचक दोनों स्वीकार करते हैं। ‘हिंदी मीडियम’ जैसी फ़िल्म के माध्यम से‌ हमारे समाज में शिक्षा व्यवस्था में जो बहुत बड़ी खामी है, उसका जीवंत दृश्य पेश करने की कला सिर्फ इरफ़ान खान के अंदर ही थी। ‘हिंदी मीडियम’ में इरफ़ान ने ज़मीनी सच्चाई को संजीदगी के साथ बयां किया।

बीच-बीच में गंभीर भाव में हास्य-व्यंग का तड़का लगाकर गंभीर संदेश देने की अदा इरफ़ान बखूबी जानते थे।
इरफ़ान ख़ान ने अपने पूरे करियर में थैंक यू, जुरासिक वर्ल्ड, जज़्बा और तलवार जैसी ख़ूबसूरत फिल्मों के माध्यम से अपने अभिनय का न सिर्फ़ लोहा मनवाया, बल्कि अपनी अदाकारी की अमिट छाप सदा के लिए छोड़कर चले गए। जब इरफ़ान ख़ान को एक ख़तरनाक बीमारी ने अपने चंगुल में लिया था, उस समय उनका करियर कामयाबी की बुलंदियों को छू रहा था। कहते हैं ना कि जब बुलावा आ जाता है तो न शोहरतें रोक पाती हैं और न ही शख्सियतें, पर उनकी यादें, उनकी अदाएं सदा हमें उनकी याद दिलाती रहेंगी।
जब इरफ़ान का संघर्ष अपने उफ़ान पर था, तब उन्होंने छोटे पर्दे की ओर रुख किया। उन्होंने दूरदर्शन पर एक टेलीफिल्म ‘लाल घास पर नीले घोड़े’ में लेनिन की भूमिका निभाई।
साल २०२1 में इरफ़ान को मरणोपरांत ‘फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड’ से सम्मानित किया गया। इरफ़ान ने बासु चटर्जी की फ़िल्म ‘कमला की मौत’ में काम किया था। इसको समीक्षकों द्वारा काफ़ी सराहा गया था।

इरफ़ान ख़ान की चुनिंदा फिल्मों की बात करें तो ‘द वॉरियर, हासिल, मक़बूल, द नेमसेक, लाइफ इन ए मेट्रो, पान सिंह तोमर, द लंचबॉक्स, पीकू, तलवार, लाइफ आफ पाई, जुरासिक वर्ल्ड, न्यूयॉर्क, हैदर, गुंडे, हिन्दी मीडियम, अंग्रेजी मीडियम और संडे’ जैसी फिल्मों का नाम आता है। आज इरफ़ान ख़ान हमारे बीच भले ही न हों, लेकिन उनकी यादें उनके प्रशंसकों के दिलों में सदैव ज़िन्दा रहेंगी।