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१४ साल बाद बढ़े मुई ‘माचिस’ के भाव..!

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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हैरानी की बात है कि जो माचिस अंधेरे में उजाला करने के लिए जरूरी है और जो आग भी जलाती है,दुनिया में उसके ‘भाव’ मुश्किल से बढ़ते हैं। यूँ इंसान ने चकमक पत्थर से लेकर चुटकी में सुलगने वाली दियासलाई तक का सफर हजारों बरसों में तय किया है,लेकिन ऐसी बहुमूल्य माचिस की कीमत दुनिया की नजर में पहले कुछ पैसे थी,जो अब बढ़कर २ रू.होने जा रही है। इतने में तो आजकल गुटखे का एक पाउच आता है,जबकि माचिस की एक डिबिया अपने भीतर करीब ५० तीलियां समेटे होती है। हर तीली में रोशनी की एक चिंगारी छिपी होती है। माचिस की बाहरी खुरदुरी सतह पर उसे रगड़ा और आग तैयार। चाहें तो खाना बनाने के लिए चूल्हा जला लें या रोशनी के लिए दिया जला लें। शौकीन और आदत से लाचार लोग इसका इस्तेमाल सिगरेट-बीड़ी या हुक्का जलाने के लिए भी करते हैं। अपने भीतर आग संजोए रखने के बाद भी माचिस खुद कभी ‘आग बबूला’ नहीं होती।
इंसानी जिंदगी की नितांत जरूरी वस्तु होने के बाद भी माचिस को कभी वैसी अहमियत नहीं‍ ‍मिली,जो दूसरी तमाम चीजों को मिलती रही है। इसके पीछे वजह शायद इसका बेहद सस्ता होना ही है। यानी घर की मुर्गी से भी ज्यादा सस्ती घर की माचिस रही है। भारत जैसे देश में बरसों सूखी लकड़ियों अथवा चकमक पत्थर के घर्षण से आग जलाई जाती रही। दियासलाई ईजाद होने तक हमारे यहां चौबीसों घंटे घर में आग को सुलगाए रखा जाता था। यह आग चूल्हे में लकड़ी, कंडे या अंगारों के रूप में होती थी। चूल्हा बुझना हमारे यहां अपशगुन माना जाता था। कारण शायद यही था कि एक बार आग बुझ जाने पर उसे फिर जलाना बहुत मशक्कत का काम था। शायद इसीलिए हिंदू और पारसी धर्म में अग्नि को देवता माना गया है। हिंदी में प्रचलित ‘माचिस’ शब्द अंग्रेजी के मैचबाॅक्स का देसी रूप है। मैच शब्द का अर्थ मूल रूप से ऐसी रस्सी है,जो ज्वलनशील रसायनों में पगी हो और लगातार जलती रहे। आजकल इससे तात्पर्य आतिशबाजी बनाने की कला से है। माचिस भी दरअसल त्वरित आग जलाने का सुरक्षित उपकरण ही है।
अब सवाल ये कि सबसे पहले माचिस किसने बनाई ? इसका श्रेय चीनियों को जाता है। १३६६ में चीनी चो केंग ल्यू ने सल्फर की दियासलाई का जिक्र किया है, जिसका इस्तेमाल रात में रोशनी के लिए चीन में करीब ४०० साल से किया जा रहा था। इसके बाद यूरोप में रासायनिक माचिस का दौर आया। एक कीमियागर हेनिंग ब्रांड ने १६६९ में फास्फोरस की ज्वलनशीलता की खोज की। आगे चलकर कुछ शोधकर्ताओं ने फास्फोरस और सल्फर मिलाकर माचिस तैयार करने की कोशिश की,लेकिन दुनिया में पहली आधुनिक माचिस की पूर्वज फ्रांस के ज्यां चांसेल ने १८०५ में तैयार की। इसमें तीली की घुंडी ज्वलनशील पोटेशियम क्लोरेट,सल्फर, गोंद और शुगर से बनाई गई थी,लेकिन इसे सल्फ्यूरिक एसिड में डुबोकर रखना पड़ता था। ये अव्यावहारिक तथा बहुत महंगा भी था। फिर १८२८ में लंदन के सेम्युअल जोन्स ने ऐसी माचिस तैयार की, जिसमें तीली पर सल्फर पुता होता था और जिसे फास्फोरस बाॅटल में डुबोने से आग जल उठती थी,लेकिन यह भी बहुत आसान नहीं था। लिहाजा प्रयोग जारी रहे। माचिस की सतह पर तीली घिस कर आग जलाने की तकनीक सबसे पहले अंग्रेज कीमियागर और दवा विशेषज्ञ जाॅन वाॅकर ने १८२६ में खोजी। उसने लकड़ी की तीलियों के सिरों पर सल्फर,एंटीमनी सल्फाइड, पोटेशियम क्लोरेट और गोंद का मिश्रण चिपकाया। ऐसी तीली को रेगमाल पर रगड़ने से तुरंत आग पैदा होती थी। बाद में इसका और उन्नत रूप १८३६ में आया। आधुनिक सुरक्षित माचिस का उत्पादन पहली बार ब्रिटेन में १८५५ में ‘ब्रायंट एंड मेनी’ कम्पनी ने शुरू किया। यही माचिस भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता में १८७० में आई,पर भारत में इसका कारोबार १९१० में कलकत्ता में बसे जापानी परिवारों ने शुरू किया। शुरूआती दौर में माचिस की डिबिया पर राजाओं की तस्वीरें होती थीं। समय के साथ माचिस की डिबिया और तीलियों का रंग-रूप भी बदलता गया,लेकिन इसकी कीमत को लेकर शुरू से एहतियात बरता गया कि ये आम आदमी की पहुंच में हो। मसलन १९२० में माचिस की डिब्बी मात्र २ पैसे की आती थी,तोआजादी के वक्त माचिस १० पैसे की थी। १९९५ में यह ५० पैसे की और बाद में १ ₹ की हुई। अब १४ साल बाद फिर माचिस के भाव बढ़ रहे हैं। बीते सौ सालों में माचिस की कीमत सौ गुना बढ़ गई है। यानी रूपए की गिरती कीमत के साथ माचिस का मूल्य बढ़ता जाता है। अभी तक माचिस की डिब्बी १ रूपए में आती थी,अब इसे बढ़ाकर २ किया जा रहा है।
आज देश में माचिस बनाने वाली करीब साढ़े ३ हजार कंपनियां हैं। इनमें भी 18 परिवारों के पास माचिस उद्योग की ६७ फीसदी हिस्सेदारी है। ताबड़तोड़ आग के इस कारोबार में ढाई लाख लोगों को रोजगार मिलता है। देश में सर्वाधिक माचिस निर्माता दक्षिण भारत में हैं। तमिलनाडु का तिरूनेलवेली जिले का कोविलपट्टी कस्बा देश का सबसे बड़ा माचिस उत्पादन केन्द्र है। भारत में प्रतिदिन ४ करोड़ माचिसों का उत्पादन होता है। हम इन्हें निर्यात भी करते हैं। माचिस निर्माताओं का कहना है कि कच्चा माल और परिवहन महंगा होने से उन्हें माचिस की कीमतें बढ़ानी पड़ रही हैं। कच्चा माल बोले तो फास्फोरस,पोटेशियम क्लोरेट, सल्फर,मोम और डिब्बी के लिए बाॅक्स बोर्ड आदि। माचिस की निरंतर बढ़ती मांग के चलते इनकी आपूर्ति कम पड़ती जा रही है। जंगल कटते जा रहे हैं,सो अलग। ऐसे में माचिस उद्योग डिबिया के लिए विकल्प के रूप में अब कार्ड बोर्ड और वैक्स कागज का इस्तेमाल कर रहा है।
यहां सवाल हो सकता है कि कच्चे माल की कीमतें तो पहले भी बढ़ती रही हैं,फिर १४ साल तक उसी भाव में क्यों मिलती रही ? इसका जवाब निर्माताओं की चतुराई है। वो कभी तीलियों की संख्या कम कर देते हैं तो कभी माचिस की डिब्बी का आकार घटाकर नुकसान की भरपाई कर लेते हैं। इस क्षेत्र में कड़ी व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धा भी माचिस की कीमतों को थामे हुए थी। चूंकि, आम ग्राहक को माचिस के ठीक से जलने से मतलब होता है,इसलिए वो इन बारीकियों पर गौर नहीं करता।
करीब एक सदी पहले माचिस को लाइटर ने कड़ी चुनौती दी। आज आधुनिक रसोईघरों में गृहिणी का पहला दोस्त लाइटर ही है,पर जब लाइटर भी धोखा दे जाता है तब मुई देसी माचिस ही साथ निभाती है। बेशक, माचिस महंगी हो रही है,यह चिंता का विषय जरूर है,लेकिन जो माचिस पेट्रोल और डीजल को पलक झपकते आग में बदल देती है, उनके भाव रोजाना बेरहम ऊंचाइयों को छू रहे हैं। ऐसे में माचिस की हैसियत इतनी तो है कि वो भी महंगाई की एक पायदान तो चढ़े। और फिर माचिस कितनी ही महंगी क्यों न हो जाए,इंसान उसका साथ शायद ही छोड़ेगा। बचपन में माचिस की डिब्बियां नकली फोन और रेल-गाड़ी बनाने के काम आती थी। उसका रोमांच आज की मोबाइल पीढ़ी नहीं समझेगी। माचिस की तीलियां जलने के अलावा ‘काड़ी करने’ और कान साफ करने का काम भी करती रही हैं। लाइटर में ये खूबियां कहां ? माचिस अपने भीतर आग लेकर समाए रखती है। ऐसी आग,जो खाक करने से ज्यादा रोशन करने में भरोसा रखती है। इसलिए माचिस से कभी डर नहीं लगता। लोग उसका दुरूपयोग करते हैं,यह अलग बात है। किसी ने ठीक ही कहा है-
‘एक जैसी दिखती है माचिस की वो तीलियां,
कुछ ने दीए जलाए और कुछ ने घर…!’

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