कुल पृष्ठ दर्शन : 199

You are currently viewing अंकीय चुनाव:अच्छाई पर सहमति बने

अंकीय चुनाव:अच्छाई पर सहमति बने

ललित गर्ग
दिल्ली

**************************************

आखिरकार चुनाव आयोग ने ५ राज्यों-उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड,गोवा,पंजाब व मणिपुर के विधानसभा चुनावों की तारीख कोरोना की तीसरी लहर के बढ़ते संक्रमण के बावजूद घोषित कर साहस का परिचय दिया। आयोग ने इससे मुकाबला करने के उपायों को लागू करने की घोषणा भी की है और चुनावों को अधिकाधिक पारदर्शी,लोकतांत्रिक व आदर्श मतदानमूलक बनाने का प्रयास भी किया है। चुनाव आयोग के दिशा-निर्देशों की अनुपालना के लिए राजनीतिक दलों को तैयार रहना चाहिए। संभवतः परम्परागत चुनाव प्रक्रियाओं एवं चुनाव प्रचार के तौर-तरीकों को रोक लगाई जा सकती है। बढ़ते कोरोना संक्रमण को देखते हुए इस तरह की स्थितियों को कड़ाई से लागू करने में किसी तरह का संकोच भी नहीं किया जाना चाहिए। राजनीतिक दलों को ऐसी सोच एवं सकारात्मकता के लिए स्वयं को तैयार कर लेना चाहिए कि तय तारीखों के बाद भी अंकीय (डिजिटल) चुनाव प्रचार पर ही निर्भर रहना पडे़। मजबूरी एवं विवशता में ही सही,यदि डिजिटल चुनाव की संस्कृति विकसित होती है तो यह उचित ही होगा एवं इससे भविष्य की चुनावी प्रक्रियाओं को कम खर्चीला बनाने की दिशा में कदम उठाने में सहायता मिलेगी। इससे न केवल दलों और मतदाताओं के समय एवं संसाधन की बचत होगी,बल्कि प्रशासन को तमाम प्रबंध करने से मुक्ति मिलेगी। तेजी से संक्रमण का जो खतरा हमें दिख रहा है,उसमें राजनेताओं और दलों की चुनाव आयोग की जारी डिजिटल चुनाव प्रक्रियाओं पर सावधानी भरी सहमति यकीनन स्वागत योग्य है
आयोग ने डिजिटल माध्यमों जैसे इंटरनेट,मोबाइल फोन आदि से चुनाव प्रचार करने पर जोर दिया है। इसमें थोड़ी समस्याएं आ सकती है,क्योंकि डिजिटल चुनाव प्रचार की कुछ सीमाएं है। भारत में अशिक्षा एवं कम तकनीकी विकास के कारण मतदाता तक प्रभावी तरीके से बात पहुंचाने में यह तरीका विदेशों की तुलना में कम सक्षम हो सकता है। बावजूद इसके इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती,क्योंकि पूर्व लहरों में पश्चिम बंगाल एवं तमिलनाडू आदि में दल डिजिटल चुनाव प्रचार कर चुके हैं। भारत के संविधान में चुनाव आयोग हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का चौथा ऐसा मजबूत पाया है जो समूचे तन्त्र की आधारशिला तैयार करता है और सुनिश्चित करता है कि केवल जनता की इच्छा ही सर्वाेपरि हो,अतः इसकी जिम्मेदारी भी बहुत बड़ी है।
आयोग ने सामाजिक जनसंचार माध्यम को गलत चुनावी प्रचार करने से रोकने के लिए भी बहुत सख्त नियम बनाए हैं परन्तु इनका कार्यान्वयन निश्चित रूप से किसी चुनौती से कम नहीं है। पूर्व के चुनावों में हमने इन नियमों का खुला उल्लंघन होते हुए देखा है। राजनीतिक दल जिस तरह के पारंपरिक चुनाव प्रचार के आदी हो हैं,उसमें इतना खर्चा आता है जो आम आदमी की समझ से परे है। हमारी चुनाव प्रणाली में धन का बढ़ता प्रभाव एक गंभीर समस्या बन चुकी है और इसकी वजह से चुनाव एक नए तरीके के कारोबारी राजनीतिक संस्कृति को पनपाने का निमित्त बन रहे हैं,जो चिंता जनक स्थिति है। न केवल चुनाव में धनबल बल्कि बाहुबल का भी उपयोग बढ़ना एक गंभीर समस्या है। इन समस्याओं के समाधान की दृष्टि से डिजिटल चुनाव प्रचार एक प्रभावी प्रक्रिया हो सकती ह।
वास्तव में चुनाव लोकतन्त्र का पर्व होता है और इसमें मतदाताओं की अधिकाधिक मतदान के लिए भागीदारी होनी चाहिए, परन्तु पिछले ४ दशक से कुछ ऐसे नियम बने जिनकी वजह से मतदाताओं की इस चुनावी-उत्सव में भागीदारी को हाशिए पर धकेला गया।
इसलिए यही सही समय है,जब आयोग और दल मिलकर इस बारे में सोचें कि भीड़ जुटाए बिना चुनाव कैसे कराए जाएं ? यह इसलिए जरूरी है कि आयोग चाहे जितनी ही कड़ी गाइडलाइन बना ले, तमाम कोशिशों के बावजूद उसका पालन करा पाना संभव नहीं होगा। तरह-तरह के विवाद उठेंगे, राजनीतिक दलों की भिन्न सोच एवं विवाद का गुबार उठेगा।
हमारे देश की विडम्बना है कि हम ऐसे कदम तब उठाते हैं,जब कोई हादसा हो जाता है। कांग्रेस के मैराथन में जब हजारों लड़कियां बिना मुख पट्टी के शामिल हो रही थीं,तब किसी ने क्यों नहीं सोचा कि कोविड के इस दौर में इतनी भीड़ जुटाई जानी चाहिए थी या नहीं ? और कुछ नहीं,तो कम से कम मुख पट्टी की पाबंदी तो लगाई होती ? फिर कांग्रेस ही क्यों,राजनीति को नई दिशा देने के दावों के साथ आए अरविंद केजरीवाल खुद बिना मुखपट्टी अपनी चुनावी पदयात्राओं में भारी भीड़ के बीच घूम रहे थे। बात किसी नेता या राजनीतिक दल की नहीं है,बात उस चेतना को जगाने की है जो अपने राजनीतिक स्वार्थों से ज्यादा जरूरी जन-रक्षा एवं जनता के हितों को माने।
वक्त के अनुसार बदलाव करना समझदारी होती है। जब डिजिटल तकनीक जीवन के हर क्षेत्र प्रवेश कर चुकी है,तमाम तरह के बदलाव ला रही है तो फिर चुनाव प्रचार की शैली को बदलने में आग्रह एवं पूर्वाग्रह क्यों ? चुनाव आयोग को सर्वाधिक ध्यान देना होगा, उत्तर प्रदेश में भी महामारी की तीसरी लहर इन चुनाव के कारण अधिक फैलने का कारण न बने,यह सुनिश्चित करना सबसे ज्यादा जरूरी है, साथ ही आदर्श चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन न हो पाए और चुनाव निष्पक्ष हों,यह सब तय करना आयोग की सबसे बड़ी चुनौती है। उसे दुष्प्रचार करने वाले आपराधिक एवं अराजक तत्वों से भी सावधान रहना होगा,क्योंकि अंकीय (डिजिटल) संसार में ऐसे तत्व भी प्रभावी भूमिका में सक्रिय है।

Leave a Reply