डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
**********************************************
क्रांति की भूमि, लोकनायक जयप्रकाश नारायण की भूमि, समग्र क्रांति आंदोलन की भूमि ‘बिहार’। वहाँ जनता की भाषा में राज्य और संघ की राजभाषा में न्याय मांगने पर इस तरह का अत्याचार, न्याय के गलियारों से अन्याय की बयार। केंद्र में राजभाषा हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रबल समर्थक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार, राज्य में हिंदी के कथित समर्थक नीतीश कुमार की सरकार, फिर भी हिंदी में न्याय के लिए आवाज उठाने पर न्यायतंत्र द्वारा एक अधिवक्ता पर ऐसा अत्याचार, कहीं कोई नहीं सुनने वाला, चीत्कार! जी हाँ, ये अधिवक्ता हैं पटना उच्च न्यायालय के सरकारी अधिवक्ता इंद्रदेव प्रसाद, जिन्हें बिहार की जनता की भाषा और बिहार राज्य की राजभाषा हिंदी में न्याय मांगने के कारण अंग्रेजी के ताकतवर जूतों के नीचे कुचल दिया गया। बिहार तो कभी इस तरह के अन्याय को स्वीकार करने वाला न था, लेकिन यह देख-सुनकर भी चारों तरफ सन्नाटा पसरा है। लगता है कुछ ताकतवर लोगों से हर कोई डरा है। बिहार तो कभी ऐसा न था।
ऐसा भी तो नहीं, कि जो मांग की गई वह संविधान और विधान के प्रतिकूल थी। संविधान के अनुच्छेद ३४८ में भी एक प्रावधान है, जिसके अनुसार किसी राज्य में स्थित उच्च न्यायालय में राज्य की राजभाषा अथवा हिंदी के प्रयोग की व्यवस्था की जा सकती है। बिहार में इसी अनुच्छेद के अंतर्गत हिंदी के प्रयोग का प्रावधान है, लेकिन शक्तिशाली लोगों के लिए कानून शायद कानून नहीं होता। इसलिए बिहार की जनभाषा हिंदी में न्याय के लिए आवाज उठाने वाले अधिवक्ता को कुचल दिया गया।
न्याय का प्राथमिक सिद्धांत है कि आरोपी को सूचना देकर उसकी गलती बताई जाए, उसका पक्ष सुना जाए, लेकिन तत्कालीन विधि अधिकारी व अधिवक्ता इंद्रदेव प्रसाद के अनुसार १६ अप्रैल २०२४ संध्या ५ बजे उनकी कुर्सी-मेज महाधिवक्ता कार्यालय, बिहार से हटवा दी गई है। जब वे महाधिवक्ता से पूछते हैं तो बताया जाता है कि उन्हें विधि अधिकारी पद से हटा दिया गया है। न कोई सूचना, न सुनवाई और न ही कोई आदेश, लेकिन जब आदेश उपलब्ध करवाने की मांग की तो समस्या खड़ी हो गई। आदेश हो तो मिले। आखिरकार न्यायालय में आदेश प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन अधिवक्ता के अनुसार विधि अधिकारी पद से कार्य मुक्ति का वह आदेश फर्जी था, जिसके लिए इंद्रदेव प्रसाद ने पुलिस में प्राथमिकी दर्ज करवाने की कोशिश की, पर इतने बड़े लोगों के खिलाफ प्राथमिकी यूँ ही तो दर्ज़ नहीं हो जाती। एक अदने से अधिवक्ता की कानूनी कार्रवाई से न्यायपालिका में बैठे शक्तिशाली लोगों के अहं को चोट लगी और उन्होंने इंद्रदेव प्रसाद जैसे मामूली व्यक्ति की इस हिमाकत के कारण सबक सिखाने की ठान ली। उनके बयान में हेरफेर करने का षड्यंत्र रचा गया, जिसके अंतर्गत उन्होंने जो कहा, बयान दर्ज करने वाले ने ठीक उससे अलग बयान दर्ज किया। न ही उनके हस्ताक्षर लिए, न ही उन्हें वह बयान दिखाया। उनके आवेदन पर जब विद्वान न्यायिक दंडाधिकारी ने माना कि हाँ, बयान दर्ज करने में गड़बड़ी हुई है। इसके चलते उन्होंने कहा कि इस गड़बड़ी के बाद यह उचित नहीं है कि मैं इस मामले की सुनवाई करूँ। जैसे-जैसे मामला कानूनी रूप से आगे बढ़ रहा था, न्याय तंत्र में अन्याय करने वाले दोषी लोग परेशान होते जा रहे थे। इस बौखलाहट के चलते उन्होंने अधिवक्ता के पेट पर अपना ब्रह्मास्त्र चला दिया। बार काउंसिल आफ इंडिया ने उनके अधिवक्ता का लाइसेंस ही निलंबित कर दिया। यानी कि अब वे अधिवक्ता के रूप में भी किसी न्यायालय में वकालत नहीं कर सकते।
सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि बार काउंसिल ने भी उनका पक्ष नहीं सुना। इंद्रदेव प्रसाद के अनुसार बार काउंसिल की अनुशासन समिति के २१ मई २०२५ के परिवाद पत्र संख्या- १/२००५ के आदेश के अनुसार अनुज्ञप्ति संख्या-३१५/९८ को निलंबित कर दिया गया। वे कहते हैं, कि उन्हें मेरा पक्ष सुनना तो चाहिए था, लेकिन शक्तिशाली लोग जहाँ हों वहाँ पर ऐसी चूक हो ही जाती है। क्या बार काउंसिल ऑफ इंडिया तथा बार काउंसिल ऑफ बिहार का यह कर्तव्य नहीं था कि वे कानून का निष्पक्ष समर्थन करें। इस मामले की तह में जाएँ और ईमानदारीपूर्वक इसकी जाँच करते हुए दूध का दूध और पानी का पानी करें। यह लड़ाई इस देश के १४० करोड़ लोगों की है, जो जनभाषा में न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जनता की रक्षा के लिए कितने ही जवान सीमा पर शहीद होते हैं, जनभाषा में न्याय के लिए अगर १ अधिवक्ता के शहीद होने से किसी को क्या फर्क पड़ता है, लेकिन यह हमला दुश्मन का नहीं, अपनों का है। इससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता कि जनभाषा में न्याय और हिंदी के लिए कोई वकील शहीद हो गया, वह वकील तो अभी भी कानूनी रूप से न्याय के लिए अपना संघर्ष जारी रखे हुए है। फर्क इससे पड़ता है कि कल कोई क्यों और कैसे, जनभाषा में न्याय के लिए कोई आवाज उठाएगा ? जाने-अनजाने न्यायतंत्र में बैठे कुछ लोगों ने अपनी करतूतों से इंद्रदेव प्रसाद को जनभाषा में न्याय का एक चेहरा बना दिया है। इस मामले को लेकर कितने चेहरों पर कालिख है, इसे समझा जा सकता है।
मेरा सवाल तो पटना उच्च न्यायालय के अन्य अधिवक्ताओं से भी है, जब यह अन्याय हो रहा था तब वे चुप क्यों थे ? उन्होंने इस अन्याय का प्रतिरोध क्यों नहीं किया क्या ? क्या अब देश में डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे अधिवक्ता नहीं बचे। समाजवाद की बात करनेवाले कहाँ हैं ? ज्यादा कुछ नहीं तो, अपने एक साथी अधिवक्ता के साथ इस प्रकार हो रहे अन्याय के विरुद्ध कम से कम एक प्रतीकात्मक विरोध तो करना ही चाहिए था। अधिवक्ता जनभाषा में न्याय के लिए संघर्ष करने वाले अपने साथी पर हो रहे अन्याय का प्रतिकार तो कर सकते हैं। पटना उच्च न्यायालय के सभी अधिवक्ताओं को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। आने वाली पीढ़ियाँ तो ये सवाल पूछेंगी।
हिंदी-सेवा के नाम पर विश्व में जितनी संस्थाएँ हैं, उतनी अन्य किसी भाषा के लिए नहीं। अकेले बिहार में ही ऐसी अनेक छोटी-बड़ी संस्थाएं हैं। इन कथित हिंदी सेवी संस्थाओं द्वारा हिंदी के नाम पर प्रतिवर्ष हजारों कार्यक्रम आयोजित होते हैं। जहाँ एक ओर भारत में अंग्रेजी, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को रौंदते हुई अपना साम्राज्य बढ़ाती जा रही है, वहीं इनमें से अनेक लोग विदेशों में हिंदी बढ़ाने के नाम पर सरकार और संस्थाओं के खर्च पर विदेश- भ्रमण में लगे हुए हैं। ये तमाम संस्थाएँ और कथित हिंदी-सेवी हिंदी के लिए आवाज उठाने पर प्रताड़ित अधिवक्ता के समर्थन में कम से कम एक-एक पत्र तो राज्य और केंद्र सरकार को लिख ही सकते हैं। इसके लिए ही सही प्रतीकात्मक ढंग से ही सही कोई अभियान या आंदोलन तो चलाया जा सकता है और पूरे मामले को सरकार के संज्ञान में लाया जा सकता था। माना कि ज्यादातर को तो इसकी खबर ही नहीं होगी, लेकिन अब भी देर नहीं हुई है जिन्हें खबर नहीं थी, अब उन्हें खबर हो रही है। अब तो आगे आना चाहिए। इस घटना को जन-जन तक पहुंचाना चाहिए।
समझ में यह भी नहीं आया कि क्रांति के अग्रदूत बिहार के अखबार, बिहार के पत्रकार और बिहार का मीडिया खामोश क्यों है ? उन्होंने इस विषय पर बिहार के मुख्यमंत्री और बिहार के कानून मंत्री से सवाल क्यों नहीं किए ? उन्होंने इस मामले पर जनजागरण क्यों नहीं किया ? यदि हिंदी का मीडिया ही हिंदी के लिए संघर्ष करने वाले के पक्ष में न खड़ा हो तो क्या यह कहीं न कहीं हिंदी पर ही आघात न होगा ? मीडिया के सभी साथियों से भी अनुरोध है कि इस मुद्दे को पूरी ताकत से उठाएँ। उन्हें किसी और को नहीं, खुद को भी जवाब देना है।
आज जबकि भारत के कई पूर्व मुख्य न्यायाधीश और वर्तमान न्यायाधीश भी जनभाषा में न्याय की बात कर रहे हैं। भारत के प्रधानमंत्री, कानून मंत्री और गृह मंत्री भी जनभाषा और भारतीय भाषाओं की बात कर रहे हैं, इसके लिए प्रयास कर रहे हैं। भारत सरकार, भारत संघ की राजभाषा की हीरक जयंती मना रही है। वहीं बिहार में हिंदी के लिए उठने वाली आवाज कुचली जा रही है। दिल्ली और पटना में बैठी सरकारों को भी इसका संज्ञान लेना चाहिए।
यहाँ एक मूलभूत प्रश्न रखना चाहता हूँ। भारत का संविधान देश की जनता के लिए है या जनता संविधान के लिए है ? निश्चित रूप से भारत का संविधान भारत के जनतंत्र और जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए है। इसी प्रकार यहाँ की न्याय प्रणाली का मुख्य आधार भी जनता को न्याय दिलवाना ही है। कई वर्ष पूर्व जब पटना में ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ द्वारा ‘जनभाषा में न्याय’ पर एक सम्मेलन आयोजित किया गया तो पटना उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश तथा विधि महाविद्यालय की प्राचार्या ने कहा था कि संविधान बनाते समय कुछ चूक हुई हैं, जिन्हें अब सुधारा जाना चाहिए। सबसे बड़ी चूक तो यही है कि इस देश में इस देश की जनता के न्याय के लिए उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में जनता की भाषाओं के स्थान पर गुलामी की भाषा अंग्रेजी को स्थापित किया गया। निचली अदालतों तक में भी काफी हद तक जनभाषा में न्याय में तमाम बाधाएँ हैं, जिसके चलते देश की आम जनता के साथ लगातार धोखाधड़ी, हेराफेरी और अन्याय होता है। महात्मा गांधी ने ही कहा था, “यदि मुझे अपने ही देश में न्याय पाने के लिए अंग्रेजी का सहारा लेना पड़े तो इससे बढ़कर अन्य नहीं हो सकता।” लेकिन आजादी के इतने लंबे समय बाद भी पूरा देश इस अन्याय से ग्रस्त है। यही नहीं, इस अन्याय के खिलाफ कोई आवाज निकलती भी है तो उसे अंग्रेजी के ताकतवर जूतों के नीचे कुचल दिया जाता है। यह घटना न केवल न्याय प्रक्रिया पर, बल्कि स्वराज पर भी प्रश्न चिह्न लगाती है।
यदि संविधान निर्माण के समय किसी भी कारण से संविधान के अनुच्छेद ३४८ के अंतर्गत न्यायपालिका में, विशेषकर उच्च न्यायपालिका में भारतीय भाषाओं के स्थान पर अंग्रेजी को रखा गया, तो क्या यह न्यायोचित नहीं कि अब संविधान में आवश्यक परिवर्तन करते हुए, विश्व के अन्य देशों की तरह देश की जनता को जनभाषा में न्याय का अधिकार दिया जाए। यदि यह कार्य कार्यपालिका के स्तर पर नहीं हो पा रहा तो जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए और न्याय को सर्वसुलभ बनाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय अपने विशेष अधिकारों का प्रयोग करते हुए इसके लिए आदेश जारी क्यों न करें ? आखिर देश की जनता कब तक अपनी भाषा में न्याय से वंचित रहेगी ?
यह संघर्ष केवल भाषा का नहीं, जनता के न्याय का है। यह असली स्वतंत्रता और जनतंत्र का संघर्ष है। अगर आज बिहार की धरती से एक वकील जनभाषा में न्याय के लिए आवाज उठा रहा है, जिसे कुचला जा रहा है तो हम वे सभी, जो जनतंत्र के समर्थक हैं, जनभाषा के समर्थक हैंं, जनभाषा में न्याय के समर्थक हैं तथा जनतांत्रिक मूल्यों के समर्थक हैं, भारत संघ और राज्य की राजभाषा के समर्थक हैं और सबसे बढ़कर न्याय के समर्थक हैं। हम सबको चाहिए कि हम पटना उच्च न्यायालय में जनभाषा में न्याय के लिए संघर्षरत अधिवक्ता को न्याय दिलवाने के लिए जिस भी तरीके से संभव हो, अपनी आवाज़ उठाएं और उन्हें न्याय दिलवाने के साथ-साथ इस संघर्ष को किसी अंजाम तक पहुंचाने में सहभागी बनें।