शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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अक्सर देर लग जाती है,
यूँ ही सोच-सोचकर-
बिता दिए दिन,
एक छोटी चींटी को
उसके घर तक पहुंचाने में,
था उस समय,
बहुत ही आसान काम
मगर,
मन बहला-फुसला दिए जमाने के।
अब भी हुई है देर कहां ?
चलो उठो!
खरीदो जमीन,
करो बातें दुखी मनों से,
तो
हकीकत से उठेगा पर्दा यहां,
शर्म-हया बची है सिर्फ,
अलग अलग राग अलापने में।
बदलो नाम!
उस धरती का…
जिसे अपवित्र किया,
कुछ मक्कारों ने
धर्म एक ही था वहां,
भेद कर लगे रहे मिटाने में।
सच यही है-
प्रकृति कुछ नहीं रखती,
अपने पास।
बस,
लग जाते हैं युग,
उसे लौटाने में, अक्सर देर लग जाती है॥