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अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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यह कितनी विडम्बना है कि, आज हर क्षेत्र में घपलेबाजी हो रही है। नेता और अधिकारी मिलकर देश लूट रहे हैं। छोटे सरकारी कर्मचारी काम न करके मात्र बैठ कर तनख्वाह लेकर या फिर घूस लेकर देश लूट रहे हैं। बड़ी विडम्बना है कि, एकमात्र धर्म परेशान लोगों का सहारा बन कर रह गया था, पर वहां भी अब ढोंग, पाखंड और नाटक होना शुरू हो चुका है। यही धर्मनेता यदि चमत्कार करता है तो सन्देह के घेरे में और यदि वह कुछ नहीं करता तो फिर वह निकम्मा है। बेचारी जनता कहां जाए ?
दिक्कत हमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई आदि धर्मों और इनके लोगों से नहीं है। यदि इन धर्मों के लोग सच में अपने धर्म को ईमानदारी से मानते हैं और उसका दिल से पालन करते हैं तो वे किसी दूसरे धर्म को भी परेशान नहीं करते हैं, पर यह जो धर्म के नाम पर धर्म परिवर्तन, लव जिहाद या अन्य कई प्रकार की घटनाएं घट रही है। बहू- बेटियों को अर्धनग्न फिल्में दिखा कर अंग प्रदर्शन की सीख दी जा रही है, बच्चों-युवा पीढ़ी को नशे की लत लगाई जा रही है। क्या ये सारी बातें ठीक हैं ? हम कहने को तो खुद को सनातनी कहते हैं, पर हम अपनी सनातनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति कितने समर्पित हैं ? क्या कदम उठाते हैं उनके संरक्षण के लिए हम ? कुछ नहीं न। बस अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं हम। ये ‘लिव इन रिलेशनशिप’ की जो बीमारी हमारे देश में आ रही है, क्या यह सनातन धर्म के अनुसार सही है ?क्या समलैंगिक विवाह ठीक है ? पशु बनाने पर तुले हैं मानव को आज। क्यों और किसलिए और कौन ? यह चर्चा भी किसी पत्रकार ने ईमानदारी से की ? बस लोक आस्थाओं और विश्वासों पर विज्ञान का सहारा लेकर तर्क देना ही मीडिया का काम रह गया है। हम आज समाज को मानव समाज नहीं, बल्कि पढ़ा-लिखा आदिमानव समाज बनाने पर तुले हैं। फर्क ये है कि, आदिमानव कच्चा मांस खाता था और हम पक्का।वे अपने लिए जंगलों में पूर्ण स्वतंत्र हो कर मनमाफिक तरीके से अपनी शक्ति के बल पर जीते थे और हम आज मानव समाज में कुछ इन्हीं गुणों के सहारे जीना चाह रहे हैं। रोक-टोक, नियम-धर्म कुछ चाहते ही नहीं हैं बस। पूर्ण स्वतंत्रता चाहते हैं। फिर काहे की सच्ची पत्रकारिता ? सब अपने-अपने अंक बनाने वाली बात है। राजनीतिक दल तो मत के लिए नौटंकी करते ही थे, पर अब देश के नामी-गिरामी पत्रकार भी यूँ ही खेमों में बँट कर रह गए हैं।एक खेमा भाजपा का गुण गाता है तो, दूसरा विरोधी दलों का। यह नहीं कि, मीडिया इनके हाथों बिक गया है, बल्कि यह बदलते दौर की विडम्बना है, जो हर इन्सान खुद को और अपनी बात को ही ठीक समझने लगे हैं। समाज के पुराने नीति-नियमों को कोरा पाखण्ड और कोरी कल्पना सिद्ध करने पर उतारू हैं। बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री का न पक्षधर हूँ और न ही किसी अन्य धर्म- नेता के पक्ष में तथा खिलाफ हूँ।
ऐसे ही आज हिन्दी की क्या दुर्दशा है आजाद भारत में ? क्या हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं होनी चाहिए ? कौन मीडिया इस मुद्दे को उठाता है ? भारत में समाचार की अधिकतर भाषा हिन्दी है, नेताओं की मत मांगने की भारत में सर्वाधिक नहीं, बल्कि १०० प्रतिशत भाषा हिन्दी या उसकी उप-भाषाएं (चुनाव जीत लिए तो फिर लग गए अंग्रेजी बोलने) हैं। फिल्मों की अधिकतर भाषा हिन्दी या हिन्दी की उप-भाषाएं हैं तो फिर हिन्दी हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा क्यों नहीं ? क्यों अंग्रेजी को सर्वाधिक महत्व हर कार्यालय, न्यायालय या सरकारी संप्रेषण और उच्च शिक्षा भाषा माध्यम में दिया जा रहा है ? क्यों हम अंग्रेजी को भारत की अघोषित राष्ट्रभाषा बनाने पर तुले हैं ? हमारी मत मारी गई है शायद। इसमें असली पत्रकार वही है, जो अपने राष्ट्र, संस्कृति और सभ्यता को सुरक्षित रखने के लिए समाज एवं युवा पीढ़ी को सचेत करेगा। जनता के सामने सरकारों, अधिकारियों, व्यापारियों, भ्रष्टाचारियों और धर्म नेताओं तथा संस्कृति और सभ्यता के साथ छेड़खानी करने वालों का सच लाने का काम करने वाला पत्रकार सही मायने में सच्चा पत्रकार है।
यह सार्वभौमिक सत्य है कि, किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति की सुरक्षा करना उस राष्ट्र के शासकों-प्रशासकों से कहीं ज्यादा बुद्धिजीवियों का काम होता है, क्योंकि बड़े यानी बुद्धिजीवी और जन आदर्श लोग जो व्यवहार करते हैं, राष्ट्र के सामान्यजन उसी का आचरण करते हैं। इस बात की पुष्टि श्रीकृष्ण जी भी गीता में कर चुके है।

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