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आत्मजा

विजयलक्ष्मी विभा 
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
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‘आत्मजा’ खण्डकाव्य से अध्याय-५
अब यौवन ने ली अँगड़ाई,
लगी बिहँसने-सी तरुणाई
जैसे बासन्ती बेला में,
ललित प्रभाती की अरुणाई।

अंग-अंग से लगी छलकने,
यौवन की मदिरा अनजाने
देख-देख अपनी ही छाया,
लगी स्वयं से वह शर्माने।

आँखों से आमंत्रण छलके,
अधरों से छलकी मुस्कानें
वाणी से कविताएँ छलकीं,
पग-गति से सरगम की तानें।

बिना किये ज्यों होने लगते,
अभिनय सब अभिनीत मंच पर
बिना उठाये हुये यवनिका,
बजने लगते गीत मंच पर।

जान न पायी स्वयं प्रभाती,
क्या से क्या हो गया यहाँ पर
जहाँ न था संकोच अल्प भी,
लज्जा का साम्राज्य वहाँ पर।

जहाँ दृष्टि जाती थी उसकी,
दिखता अपना बिम्ब प्रकृति में
करती सी अनुकरण दिखती,
उसका ही अपनी स्मृति में।

वह रोती पावस आ जाती,
वह हँसती बसन्त खिल जाता
वह लेती अँगड़ाई ऊपर,
नीचे भूमंडल हिल जाता।

जब उसके अधरों से मधु के,
पावन निर्झर झर-झर आते
प्रकृति नटी के वक्षस्थल पर,
द्रुत उपवन कानन खिल जाते।

कभी हृदय से कोमल-कोमल,
भाव निकल ऊपर उड़ जाते
नीरवता की होती रचना,
जब वे शून्य गगन बन छाते।

श्वांसें लेती तो आ जातीं,
मन्थर-मन्थर सरस हवाएँ
वह गाती,दोहराता गाकर,
क्षितिज स्वयं उसकी कविताएँ।

समझ न पाती भेद प्रकृति का,
क्यों वह हर पल उसे चिढ़ाती
कहाँ छिपाये यौवन अपना,
सोच न पाती विवश प्रभाती।

किससे पूछे किससे बूझे,
यौवन क्या है कोई बता दो
आया कैसे और कहाँ से,
कोई उसका मुझे पता दो।

क्यों यह अन्तर पड़ा स्नेह में,
नहीं पिताजी हृदय लगाते
खेली पली गोद में जिनके,
वे अब छूने में सकुचाते।

मुझे देख हर्षातिरेक से,
उठा-उठा लेते थे कैंयाँ
माँ लेती थी सुख से मेरी,
दिन में सौ-सौ बार बलैंयाँ।

कभी न मुझ पर रखा नियंत्रण,
कभी न यों प्रतिबंध लगाये
देख शोख चंचलता मेरी,
कभी न वे इतना घबराये।

मेरे लिये खुले थे घर के,
और प्रकृति के सब वातायन
नील गगन के पंछी जैसा,
उड़ता था मेरा चंचल मन।

रंग-बिरंगे थे पर मेरे,
डाली-डाली थी हरियाली
जहाँ बैठ जाती थी खिल कर,
दिखती शोभा वहाँ निराली।

चंदा मेरे लिये सुलभ था,
तारों की थी मेरी टोली
गुड़िया मेरी सखी सहेली,
गुड्डा था मेरा हमजोली।

मेरी आँखों में थी चपला,
मेरी गति में बहती नदियाँ
हो साकार महकती थीं नित,
मेरे सपनों की फुलबगियाँ॥
(प्रतीक्षा कीजिए अगले भाग की…)

परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। 
समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता,गीत,गजल,कहानी,लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन,अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक 
पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।

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