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आत्महत्याओं का बढ़ना बदनुमा दाग

ललित गर्ग
दिल्ली
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विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस (१० सितंबर) विशेष….


बढ़ती आत्महत्या की घटनाएं एक ऐसा बदनुमा दाग है, जो हमारे तमाम विकास एवं शिक्षित होने के दावों को खोखला करता है। आत्महत्या शब्द जीवन से पलायन का डरावना सत्य है जो दिल को दहलाता है। इसका दंश वे झेलते हैं जिनका कोई अपना आत्महत्या कर चला जाता है, उनके प्रियजन, रिश्तेदार एवं मित्र तो दुःखी होते ही हैं, सम्पूर्ण मानवता भी आहत एवं शर्मसार होती है। एक रिपोर्ट के अनुसार २०१९ में भारत में १.३९ लाख लोगों ने आत्महत्या की, जिनमें से लगभग ४५ फीसदी लोग तनाव, अवसाद, बायपोलर डिसऑर्डर, सिजोफ्रेनिया जैसी समस्याओं का सामना कर रहे थे। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि आत्महत्या के प्रमुख कारणों में तनाव, हिंसा, अवसाद, निराशा, नकारात्मकता सहित अन्य मानसिक समस्याएं, गंभीर रोगों के चलते निराशा, सामाजिक संघर्ष या दबाव न झेल पाना, अज्ञानता आदि शामिल हैं। ऐसी विभिन्न स्थितियों में व्यक्ति खुद को अकेला मानने लगता है, और ऐसे निराशाजनक कदम उठा लेता है।
आत्महत्या की बढ़ती डरावनी स्थितियों को कम करने एवं बढ़ती घटनाओं पर नियंत्रण पाने के लिए ‘विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस’ प्रतिवर्ष १० सितंबर को मनाया जाता है, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन के सहयोग से अंतर्राष्ट्रीय एसोसिएशन फॉर आत्महत्या रोकथाम द्वारा आयोजित किया जाता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने हाल में भारत में आत्महत्या के जो आँकड़े जारी किए हैं, वे चिंताजनक हैं। किसी भी समाज और देश के लिए यह बेहद चिंताजनक स्थिति है। कोई शख्स आत्महत्या को आखिरी विकल्प क्यों मान रहा है ? ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक देश में आत्महत्या के मामलों में ३.६ फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और औसतन देश में हर २ घंटे में ३ लोग जान दे रहे हैं। २०१८ में कुल १,३४,५१६ लोगों ने खुदकुशी की, जो २०१७ के मुकाबले ३.६ फीसदी अधिक है और यह आगामी वर्षों में लगातार बढ़ती जा रही है।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि देश में छात्रों की आत्महत्या की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। ब्यूरो के २०१८ के आँकड़ों से लगभग १०,१५९ छात्रों ने आत्महत्या की है। इनमें से एक चौथाई ने इम्तिहान में असफल होने के डर से आत्महत्या की। इसके अलावा प्रेम में नाकामी, उच्च-शिक्षा के मामले में आर्थिक समस्या और बेरोजगारी भी छात्रों की आत्महत्या की प्रमुख वजह के रूप में सामने आई है। महाराष्ट्र में १४४८ छात्रों के आत्महत्या के सबसे अधिक मामले सामने आए हैं।
बेटियां तो और भावुक होती हैं। माता-पिता के साथ संवादहीनता बढ़ने से बच्चे परिवार, विद्यालय और कोचिंग में तारतम्य स्थापित नहीं कर पाते हैं और तनाव का शिकार हो जाते हैं। हमारी व्यवस्था ने उनके जीवन में अब सिर्फ पढ़ाई को ही रख छोड़ा है। रही-सही कसर मोबाइल ने पूरी कर दी है। दूसरी ओर माता-पिता के पास वक्त नहीं है, उनकी अपनी समस्याएं हैं, उसका तनाव है। एक और वजह है, भारत में परंपरागत संयुक्त परिवार का ताना-बाना टूटता जा रहा है। परिवार एकाकी हो गए हैं। यही वजह है कि अनेक बच्चे आत्महत्या जैसे अतिरेक कदम उठा लेते हैं। बच्चे संघर्ष करने के बजाय हार मान कर आत्महत्या का सहज रास्ता चुन ले रहे हैं। माता-पिता और शिक्षकों की यह जिम्मेदारी है कि वे लगातार बच्चों को यह समझाएं कि परीक्षा परिणाम ही सब कुछ नहीं है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण है कि इम्तिहान में बेहतर न करने वाले लोगों ने जीवन में सफलता के मुकाम हासिल किए हैं।
कभी कोई विद्यार्थी, कभी कोई पत्नी, व्यापारी अथवा किसान, कभी कोई सरकारी कर्मी तो कभी कोई प्रेमी-जीवन में समस्याओं से इतना घिरा हुआ महसूस करता है या नाउम्मीद हो जाता है कि उसके लिए जीवन से पलायन कर जाना ही सहज प्रतीत होता है और वह आत्महत्या कर लेता है। यही कारण है कि विश्व में हर ४० सेकंड में १ व्यक्ति आत्महत्या करता है, इस तरह वर्ष से ८ लाख से अधिक लोग मर जाते हैं तथा इससे भी अधिक आत्महत्या का असफल प्रयास करते हैं।
इधर तीन-चार दशकों में विज्ञान की प्रगति के साथ जहां बीमारियों से होने वाली मृत्यु संख्या में कमी हुई है, वहीं इस वैज्ञानिक प्रगति एवं तथाकथित विकास के बीच आत्महत्याओं की संख्या पहले से अधिक हो गई है। यह समाज के हर एक व्यक्ति के लिए चिंता का विषय है।
चिंता की बात यह भी है कि आज के सुविधा भोगी जीवन ने तनाव, अवसाद, असंतुलन को बढ़ावा दिया है, अब सन्तोष धन का स्थान अंग्रेजी के ‘मोर धन’ ने ले लिया है। तब कुंठित एवं तनावग्रस्त व्यक्ति को अन्तिम समाधान आत्महत्या में ही दिखता है। यह केवल भारत की समस्या नहीं है, विदेशों में तो इसके आँकड़े चौंकाने वाले हैं। लगभग अस्सी नब्बे प्रतिशत किशोर किशोरियां तनावग्रस्त हैं जिनका इलाज चल रहा है। यह सब आज के अति भौतिकवादी एवं सुविधावादी युग की देन है। तकनीकी विकास ने मनुष्य को सुविधाएँ तो दीं लेकिन उससे उसकी मानवीयता, संतुलन छीन लिया। डेह्लबर्ग कहते हैं- “जब कोई महसूस करता है कि उसकी जिन्दगी बेकार है तो वह या आत्महत्या करता है या यात्रा।” प्रश्न है कि लोग दूसरा रास्ता क्यों नहीं अपनाते ?
आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं को रोकना एक आदर्श एवं संतुलित समाज का आधार होना चाहिए। दिवस की सार्थकता तभी है जब इस दिशा में कुछ ठोस उपक्रम हो। संपर्क, संवाद और देखभाल- यह ३ शब्द आत्महत्या की रोकथाम में मूल मंत्र साबित हो सकते हैं। आत्महत्या के पीछे के कारणों को खोजना जरूरी है। अनेक संगठन एवं व्यक्ति इस दिशा में सार्थक पहल कर रहे हैं। जिन्होंने आत्महत्या रोकने के उपाय खोजे हैं और विचारों एवं कार्यों को अमलीजामा पहनाने के लिए मुहिम चला रहे हैं। आज ज्यों-ज्यों विकास के नए कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं, त्यों-त्यों आदर्श धूल-धूसरित होे रहे हैं और मनुष्य आत्महंता होता रहा है।

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