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आम चुनाव:देश को अर्जुन चाहिए

ललित गर्ग

दिल्ली
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लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है और माहौल गरमा रहा है। चुनाव की तारीखें घोषित किए जाने के साथ ही जैसी उम्मीद थी, सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच तीखी बयानबाजी और तेज हो गई है। कौरव रूपी विपक्षी दल एवं पाण्डव रूपी भाजपा के बीच इस चुनाव में असली जंग सत्य और असत्य के बीच है। सत्ता पक्ष और विपक्ष की यह नोक-झोंक ही तो लोकतंत्र की खूबसूरती है, यह जितनी शालीन एवं उग्र होगी, लोकतंत्र का यह महापर्व कुंभ उतना ही ऐतिहासिक एवं खास होगा। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है, और उदार बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली का जीवन्त उदाहरण है, जिससे चुनाव का समय व प्रचार विविधतापूर्ण, आक्रामक व रंग-रंगीला होना ही है, मगर इसमें कहीं भी कड़वापन, उच्छृंखलता और आपसी रंजिश का पुट नहीं आना चाहिए।
इस बार के चुनाव में जहां भाजपा नेतृत्व अगले २० वर्ष का परिदृश्य-सोंच पेश कर रहा है, वहीं कांग्रेस नेतृत्व इसे लोकतंत्र बचाने का आखिरी मौका करार दे रहा है। यानी इन चुनावों का फलक ५ साल के काम के आधार पर अगले ५ साल के लिए जनादेश के सामान्य चलन तक सीमित नहीं रहा। यह चुनाव असल में आजादी के अमृतकाल यानी वर्ष २०४७ के लक्ष्य को सुनिश्चित करने वाला है। इस चुनाव में सर्वाधिक चर्चा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनके भावी देश-निर्माण के संकल्प की है। असल में तो इन चुनाव में भाजपा की जीत तो निश्चित मानी जा रही है, लेकिन वह अपने ४०० के लक्ष्य को हासिल कर पाती है या नहीं ?, भाजपा इसके इर्द-गिर्द अपना अभियान चला रही है, जबकि विपक्ष जीत का दावा करते हुए भाजपा के इस बड़े लक्ष्य को हास्यास्पद बता रहा है, यह उनके प्रति अपनी नापसंदगी से परेशान है।
भाजपा के पास बड़ा उद्देश्य है, जबकि विपक्ष भाजपा की काट करने के लिए भी प्रभावी मुद्दे नहीं तलाश पा रही है। भाजपा प्रचार में शामिल हैं-आर्थिक विकास, देश और विदेश में सशक्त राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, सांस्कृतिक पुनरुत्थान, नया भारत-सशक्त भारत, औद्योगिक क्रांति, दुनिया की महाशक्ति बनना, स्थिरता, शांति। विपक्ष इन ही बड़े उद्देश्यों की आलोचना कर रहा है। श्री मोदी इस चुनाव के महानायक हैं, परिवर्तनकारी व्यक्ति हैं जो स्थिरता का वादा करते हुए मत मांग रहे हैं। अपने आलोचकों के लिए, वह एक अत्यंत ध्रुवीकरण करने वाले व्यक्ति हैं।
इस बार का आम चुनाव रोमांचक होने के साथ देश में बड़े परिवर्तन का कारण बनेगा। इस चुनाव में सभी दल सरकार बनाने का दावा पेश कर रहे हैं और अपने को ही विकल्प बता रहे हैं। इधर, मतदाता सोच रहा है कि, देश में नेतृत्व का निर्णय मेरे मत से ही होगा। इस वक्त मतदाता मालिक बन जाता है और मालिक याचक। बस केवल इसी से लोकतंत्र परिलक्षित है, बाकी सभी मर्यादाएं, प्रक्रियाएं हम तोड़ने में लगे हुए हैं। जो नेतृत्व स्वतंत्रता प्राप्ति का शस्त्र बना था, वही नेतृत्व जब तक पुनः प्रतिष्ठित नहीं होगा, तब तक मत, मतदाता और मतपेटियां सही परिणाम नहीं दे सकेंगी। आज देश को एक सफल एवं सक्षम नेतृत्व की अपेक्षा है, जो राष्ट्रहित को सर्वोपरि माने। आज देश को एक अर्जुन चाहिए, जो मछली की आँख पर निशाने की भांति भ्रष्टाचार, राजनीतिक अपराध, महंगाई, बेरोजगारी, बढ़ती आबादी, सरकारी खजाने का गलत इस्तेमाल, देश की सीमा-रक्षा आदि समस्याओं पर ही अपनी आँख गड़ाए रखें। इस दृष्टि से सबकी नजर श्री मोदी पर ही लगी हैं। श्री मोदी ही अर्जुन की मुद्रा में हैं, जो मछली कीआँख पर निशाना लगा सके। वे आदर्शां एवं मूल्यों के साथ चुनावों में उतरे हैं, राजनीति की चकाचौंध में धृतराष्ट्र बने नेताओं के लिए वे एक चुनौती हैं।
सभी विपक्षी दलों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव है और परिवारवाद तथा व्यक्तिवाद की छाया है। कोई अपने बेटे को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है, तो कोई अपने बेटे को मुख्यमंत्री। किसी का पूरा परिवार ही राजनीति में है, इसलिए विरासत संभालने की जंग भी जारी है। ऐसे में श्री मोदी ही सबसे प्रभावी नेता बन कर सामने आ रहे हैं, लेकिन मतदाता के फैसले में इनकी कितनी भूमिका रहेगी, यह अभी स्पष्ट नहीं है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी की २ यात्राओं से उपजे प्रभाव की परीक्षा भी इसी चुनाव में होनी है। कुल मिलाकर, विपक्ष और सत्ता पक्ष कुछ भी कहे, देशवासियों की जागरूक चेतना को देखते हुए यह तय माना जा सकता है कि, आम चुनाव का यह लोकतांत्रिक पर्व एक बार फिर देश में लोकतंत्र की जड़ों को गहरा ही करेगा।
विपक्षी दलों ने देश-सेवा के स्थान पर स्व-सेवा में ही एक सुख मान रखा है। आधुनिक युग में नैतिकता जितनी जरूरी मूल्य हो गई है, उसके चरितार्थ होने की सम्भावना को इन विपक्षी दलों ने उतना ही कठिन कर दिया है। ऐसा लगता है मानो ऐसे तत्व पूरी तरह छा गए हैं। खाओ, पीओ, मौज करो। सब कुछ हमारा है। हम समाज में, राष्ट्र में, संतुलन व संयम नहीं रहने देंगे। यही आधुनिक चुनावों का घोषणा-पत्र है, जिस पर लगता है कि सभी विपक्षी दलों ने हस्ताक्षर किए हैं। भला इन स्थितियों के बीच उन्हें वास्तविक जीत कैसे हासिल हो ? आखिर जीत तो हमेशा सत्य की ही होती है और सत्य इन तथाकथित राजनीतिक दलों के पास नहीं है। महाभारत युद्ध में भी तो ऐसा ही परिदृश्य था। आज लगभग हर राजनीतिक दल और उनके नेतृत्व के सम्मुख यही प्रश्न खड़ा है और इस प्रश्न का उत्तर भी और कहीं नहीं, उन्हीं के पास है। राजनीति की दूषित हवाओं ने हर राजनीतिक दल और उसकी चेतना को दूषित कर दिया है। सत्ता और स्वार्थ ने अपनी आकांक्षी योजनाओं को पूर्णता देने में नैतिक कायरता दिखाई है। इसकी वजह से लोगों में विपक्षी दलों के प्रति विश्वास इस कदर उठ गया है कि, चौराहे पर खड़े आदमी को सही रास्ता दिखाने वाला भी झूठा-सा लगता है।
आज किसी भी राजनीतिक दल के पास आदर्श चेहरा नहीं है, कोई पवित्र कार्यक्रम नहीं है, किसी के पास बांटने को रोशनी के टुकड़े नहीं हैं, जो नया आलोक दे सकें, जो मोदी रूपी अर्जुन के देश-विकास के बाणों का मुकाबला कर सके।

यह वक्त विपक्षी दलों और उनके उम्मीदवारों को कोसने की बजाय मतदाताओं के जागने का है। अभिप्रायः यह है कि मतदाता को लोकतंत्र का प्रशिक्षण बिल्कुल नहीं हुआ। सबसे बड़ी जरूरत है कि मतदाता जागे, उसे लोकतंत्र का प्रशिक्षण मिले। हमें किसी दल विशेष और व्यक्ति विशेष का भी विकल्प नहीं खोजना है। विकल्प तो खोजना है भ्रष्टाचार का, अकुशलता का, प्रदूषण का, भीड़तंत्र का, गरीबी के सन्नाटे का, महंगाई का, राजनीतिक अपराधों का। यह सब लम्बे समय तक त्याग, परिश्रम और संघर्ष से ही सम्भव है। इसलिए हे मतदाता प्रभु! जागो!