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इंतजार में…

असित वरण दास,
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
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मैंने देखा है ओस की बूंदों को तड़पते,
एक रोशनी के इंतज़ार में
देखा है साख पर लगे सूखे पत्तों को सहमे,
एक हवा के इंतजार में।

मैंने देखा है जख्मी साँसों को,
धड़कनों की दहलीज पर
एक दुआ के इंतजार में।

कितने ही पल यूँ ही बीत जाते हैं,
बस उदासी में
पर मुश्किल है जीना एक पल,
एक मुसाफ़िर के इंतजार में।

मैंने देखा है रिश्ते की धूप को तरसते,
एक गहरी छाँव के इंतजार में
देखा है दमों को टूटते,
एक मुकम्मल तस्वीर के इंतजार में।

जो दरख़्त काटे गए,
वो मेरे नहीं थे
जो नदी सुखा दी गई,
वो मेरी नहीं थी,
जो बादल बरस नहीं पाए
वो भी तो मेरे नहीं थे,
किसी का कुछ भी तो नहीं,
फिर भी क्यों रोने को जी करता है।
और मेरी आँखें क्यों चमकती है अंधेरे में,
एक लाज़मी तस्वीर के इंतजार में…?

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