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उनका मान-सम्मान,स्वाभिमान थी साइकिल

सुरेन्द्र सिंह राजपूत हमसफ़र
देवास (मध्यप्रदेश)
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मेरे पिता जी की साईकल स्पर्धा विशेष…..

दोस्तों,आधुनिक युग में बहुत बड़े-बड़े परिवर्तन हुए हैं,आज से तीस- चालीस साल पहले की हम बात करें तो उस समय की जीवनशैली और आज की जीवनशैली में बहुत बड़ा परिवर्तन आया है। यह नहीं कहता कि समाज और देश तरक़्क़ी न करे, ख़ूब तरक़्क़ी करे लेकिन इस दौड़ में नैतिकता की गिरावट नहीं आनी चाहिए। समाज और राष्ट्र ने इन सालों में तरक़्क़ी तो खूब की है,लेकिन उसके नैतिक मूल्यों में बहुत गिरावट आई है। आज की नई पीढ़ी में हमारे माता-पिता व बुज़ुर्गों के प्रति सम्मान की भावना में गिरावट बहुत चिंतनीय है।
एक पुत्र ने अपने पिताजी की स्मृतियों को याद करते हुए लिखा है कि,-‘मुझे अपने हाथों की सब अंगुलियों से बहुत प्यार है न जाने कौन-सी अंगुली पकड़कर पापा ने चलना सिखाया था।’
कुछ ऐसे ही मन को झकझोर कर दिया विषय ‘मेरे पिता जी की साइकिल’ ने,क्योंकि पिताजी की साइकिल याद आते ही याद आ गया ५५ साल पहले के जीवन और बचपन का एक-एक दृश्य। मेरे पिताजी की साइकिल सिर्फ़ उनकी साइकिल नहीं थी,उनका मान-सम्मान,स्वाभिमान थी। लगभग ५५ साल पहले जब मैंने होश संभाला तो मेरे पिताजी श्री टीकाराम राजपूत(अब दिवंगत) सीहोर नगर पालिका में टाईम कीपर के पद पर छोटी-सी नौकरी करते थे। मिट्टी की दीवारों और खपरैल का कच्चा मकान,जिसमें उस ज़माने में हमारे घर में बिजली नहीं थी। घासलेट के तेल की डिब्बी और लालटेन की रोशनी से जीवन चलता था। माँ गृहिणी थीं लेकिन घर की आर्थिक हालत खराब होने के कारण वे भी खेती-किसानी वाले घरों में मज़दूरी करती थी। हम ३ भाई बहिन और माता-पिता इस तरह ५ लोग थे। गरीबी और अभावों से भरी ज़िन्दगी थी,लेकिन बहुत आनंद और सन्तोष था। कोई बड़ी ख्वाहिश नहीं हुआ करती थी,जो कुछ परमेश्वर ने दिया था उसमें खुशी-खुशी जीवन चलता था। आँगन में लगे नीम और पीपल के बृक्ष शुद्ध हवा,छाँव और ठंडक देते थे,उस मिट्टी के आँगन में टूटी खटिया पर भी इतनी अच्छी नींद आती थी,जो आज के कूलर और ए.सी. की हवा में भी नहीं आती।
उस जमाने का एक-एक दृश्य आँखों में समा गया है। सबसे पहले साइकिल से ही बात शुरू की जाए – मेरे पिताजी का कद छोटा था,इसलिए उनकी साइकिल भी आम साइकिलों से थोड़ी छोटी थी। अपनी नौकरी के प्रति पूर्ण ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा उनमें थी। उनको अपने अधिकारी के निर्देशन में मिले शहर के छोटे-बड़े सिविल कार्य करवाना होता था। सुबह ४ बजे उठकर अपने नित्यकर्म से निवृत्त हो एक घण्टा भगवान का भजन-पूजन,माला जाप आदि करना,उसके बाद अपनी लगाई गई बागबानी में पौधों को पानी देना। फिर ८ बजे नाश्ता कर अपने दोपहर के खाने का टिफ़िन लेकर अपनी साइकिल से दफ़्तर पहुँच कर उस दिन के कार्यों को समझना,फिर मज़दूरों की टीम बनाकर कार्य विभाजन करना। अपनी उसी साइकिल से जहाँ-जहाँ कार्य चल रहे वहाँ जाकर निरीक्षण करना,शाम को वापिस दफ़्तर पहुँच कर अधिकारी को दिनभर के कार्यों की प्रगति से अवगत कराना। पिताजी की ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा के कारण सभी अधिकारी-कर्मचारी उनको ख़ूब सम्मान देते थे। इधर,मज़दूर वर्ग से जुड़े रहने के कारण पिताजी मज़दूरों को भी उनके सुख-दु:ख में सहायता करते थे। छोटे से शहर में उन्होंने अपने सामाजिक और सरल स्वभाव के कारण बड़ी पहचान बनाई थी। पिताजी बहुत ज्यादा पढ़े-लिखे तो नहीं थे,लेकिन उन्हें तीन भाषाओं हिंदी,अंग्रेजी और उर्दू का ज्ञान था। उनकी शिक्षा और संस्कार की बदौलत ही मैं आज ये लेखन कर पा रहा हूँ। मैं पिताजी की स्मृतियों,उनकी साइकिल,उनके साहस और उनकी जीवनशैली को नमन करता हूँ।

परिचय-सुरेन्द्र सिंह राजपूत का साहित्यिक उपनाम ‘हमसफ़र’ है। २६ सितम्बर १९६४ को सीहोर (मध्यप्रदेश) में आपका जन्म हुआ है। वर्तमान में मक्सी रोड देवास (मध्यप्रदेश) स्थित आवास नगर में स्थाई रूप से बसे हुए हैं। भाषा ज्ञान हिन्दी का रखते हैं। मध्यप्रदेश के वासी श्री राजपूत की शिक्षा-बी.कॉम. एवं तकनीकी शिक्षा(आई.टी.आई.) है।कार्यक्षेत्र-शासकीय नौकरी (उज्जैन) है। सामाजिक गतिविधि में देवास में कुछ संस्थाओं में पद का निर्वहन कर रहे हैं। आप राष्ट्र चिन्तन एवं देशहित में काव्य लेखन सहित महाविद्यालय में विद्यार्थियों को सद्कार्यों के लिए प्रेरित-उत्साहित करते हैं। लेखन विधा-व्यंग्य,गीत,लेख,मुक्तक तथा लघुकथा है। १० साझा संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है तो अनेक रचनाओं का प्रकाशन पत्र-पत्रिकाओं में भी जारी है। प्राप्त सम्मान-पुरस्कार में अनेक साहित्य संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। इसमें मुख्य-डॉ.कविता किरण सम्मान-२०१६, ‘आगमन’ सम्मान-२०१५,स्वतंत्र सम्मान-२०१७ और साहित्य सृजन सम्मान-२०१८( नेपाल)हैं। विशेष उपलब्धि-साहित्य लेखन से प्राप्त अनेक सम्मान,आकाशवाणी इन्दौर पर रचना पाठ व न्यूज़ चैनल पर प्रसारित ‘कवि दरबार’ में प्रस्तुति है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-समाज और राष्ट्र की प्रगति यानि ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचंद, मैथिलीशरण गुप्त,सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ एवं कवि गोपालदास ‘नीरज’ हैं। प्रेरणा पुंज-सर्वप्रथम माँ वीणा वादिनी की कृपा और डॉ.कविता किरण,शशिकान्त यादव सहित अनेक क़लमकार हैं। विशेषज्ञता-सरल,सहज राष्ट्र के लिए समर्पित और अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिये जुनूनी हैं। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-
“माँ और मातृभूमि स्वर्ग से बढ़कर होती है,हमें अपनी मातृभाषा हिन्दी और मातृभूमि भारत के लिए तन-मन-धन से सपर्पित रहना चाहिए।”

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