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उड़ता पंछी

संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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मोटी-मोटी सलाखों वाली,
छोटी-छोटी खिड़कियों की…
सफ़ेद दिवारों से सटी,
बिना पलकें झपकाई…
सूनी-सूनी आँखें…।

सफ़ेद लोहे के पंलग पर…,
कई सिलवटों और तहों भरी
सफ़ेद चादरों पर ऐंठी टाँगें…,
बगल में पड़ी भींची हुई मुठ्ठियाँ…
सोचती रहती है दिवार के पार…।

कुछ याद करने की कोशिश,
बरसों पुरानी कहानियॉं
हक़ीक़तें, वारदातें,
बिखरी-बिखरी-सी पड़ी थी…
बिखरे और उलझे हुए,
सिर के बालों की तरह…।

वो खेतों-खलिहानों की मस्तियाँ…,
वो स्कूल-कॉलेज की हस्तियॉं..
फसलों की अमीरी,
दोस्त भी जरुरी
जवानी का जोश…,
बिगड़ों का साथ
तमाम बेफ़िक्री…।

हल्का-सा कश,
धुँए में उड़ता जोश…
कड़वा-सा घूंट,
हो गए मदहोश…
धुँए के धुँध में बहकर,
ना जाने कहाँ खो गए…।
जब आँख खुली तो,
सलाखों में क़ैद हो गए…॥

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