सरोजिनी चौधरी
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
**************************************
आज भी जब मैं वह दुर्घटना याद करती हूँ, तो मेरा मन विचलित हो जाता है, पर जहाँ अपना कोई वश नहीं; वहाँ हम लाचार हो जाते हैं और बस दृष्टा की तरह सब कुछ देखते रहते हैं।
बात उन दिनों की है, जब हम रेलवे कॉलोनी में रहते थे। पापा रेलवे में अच्छी पोस्ट पर थे और कुछ दिन पहले ही कानपुर से इलाहाबाद आए थे। जल्द ही हम लोगों का परिचय हो गया था। सभी एक-दूसरे से मिलते-जुलते रहते थे। शाम को अधिकतर सब घर से बाहर निकल आते या ठंड का समय हो तो दिन में सभी महिलाएँ बाहर चारपाई डाल कर बैठती थीं। बुनाई सबके हाथ में होती ही थी, या अन्य कोई कार्य जो बाहर बैठ कर हो सकता था।
मैं उस समय १२-१३ वर्ष की ही थी। दो-चार परिवारों से बहुत निकट का संबंध हो गया था और उन्हीं में से एक परिवार जैन साहब का था। बड़े अच्छे सीधे-सादे लोग थे। उनके १ बेटा और २ बेटी थे। बेटा बड़ा था और बेटियाँ छोटी। जब वो लोग वहाँ आए थे तो बेटा दसवीं कक्षा में पढ़ता था तथा बेटियाँ आठवीं और छठवीं में थीं।हम भी ३ भाई-बहन थे, भाई बड़ा और उसके बाद हम दोनों बहनें; जिनमें मैं बड़ी थी। अतः परिवार के सब सदस्यों की दोस्ती उनके परिवार से थी। बाहर भी कहीं पिकनिक या घूमने जाना हो तो साथ-साथ ही दोनों परिवार जाते थे। कभी-कभी वो मजाक में कहतीं कि आपकी बेटी को बहू बना कर ले जाऊँगी, और हम दोनों संबंधी बन जाएंगे, जबकि उन दिनों अन्तर्जातिय विवाह इतना प्रचलित नहीं था।
समय बीतता गया, आशीष (उनके बेटे का नाम) अब १२वीं कक्षा में आ गया था, पीईटी की भी तैयारी कर रहा था। आशीष बहुत परिश्रम करता था और सदैव कक्षा में दूसरे-तीसरे नम्बर पर रहता था।मेरा भाई प्रतीक पीएमटी की तैयारी कर रहा था। दोनों ही पढ़ने में तेज थे और बहुत मेहनत भी कर रहे थे। नीना-मीना (आशीष की बहनों का नाम) तथा हम दोनों बहनें माला और मीता, कमाल की बात ये कि हम लोगों की भी कक्षाएँ एक ही थी। बहुत अच्छा समय बीत रहा था, पर कुछ लोगों को हमारी दोस्ती बिलकुल नहीं सुहाती थी।
नीना की मम्मी को मैं चाची जी और पापा को चाचा जी कहती थी। पापा का तबादला होता रहता था और अब यहाँ का समय भी पूरा हो चुका था, कभी भी निर्देश आ सकता था। यदि बच्चे बोर्ड की परीक्षा दे रहे हैं तो सत्र के बीच में तबादला नहीं होता था। परीक्षा का समय आया और परिणाम भी आ गया। पीईटी और पीएमटी में दोनों अच्छी रैंक पर थे, तो ख़ुशी का कोई ठिकाना न था।
चाची जी ने आशीष से कहा कि मुझे मंदिर जाना है, तेरे पापा आ जाएँ तो दर्शन कर आऊँ।
आशीष बोला मैं ले चलता हूँ, मैं भी मंदिर हो आऊँगा, परिणाम घोषित होने के बाद गया भी नहीं हूँ। दोनों तैयार होकर मंदिर निकल गए। वापस आने में बहुत देर हो रही थी तो लगा कि शायद बाज़ार की तरफ़ निकल गए होंगे। मैं उस समय उनके ही घर में थी। जब फोन की घण्टी बजी, तो पता चला कि अस्पताल से चाची जी का फोन आया है, एक्सीडेंट हो गया है। आशीष को काफ़ी चोट लगी है। यह सुनकर दोनों घरों में जैसे भूचाल आ गया हो, चाचा जी तथा मम्मी-पापा तीनों अस्पताल के लिए निकल गए। घर में हम सब की हालत भी ख़राब हो रही थी, सब जानने को उत्सुक थे कि ज़्यादा चोट तो नहीं लगी। थोड़ी देर बाद पापा आए, उनका चेहरा उतरा हुआ था। बताने लगे कि चोट बहुत अधिक लगी है और डॉक्टर का कहना है कि बचने की संभावना कम ही है, जबकि चाची जी को अधिक चोट नहीं लगी।
जो लोग एक्सीडेंट के स्थान से इन दोनों को उठा कर अस्पताल लाए थे, वे बता रहे थे कि आशीष तो स्कूटर सही चला रहा था, लेकिन सामने से आने वाले ऑटो रिक्शा ने गलत मोड़ ले लिया और यह दुर्घटना हो गई। हम लोगों की सारी रात ऐसे बैठे-बैठे बीती; मम्मी, पापा और चाचा-चाची अस्पताल में एवं हम सब बच्चे घर में। प्रातः मम्मी घर आईं और बताने लगीं कि प्रातः ४ बजे आशीष हम सबको छोड़ गया। आज भी जब मैं वह समय याद करती हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उसके बाद मम्मी-पापा का अधिकतर समय उन लोगों के साथ ही बीतता। कुछ दिन बाद पापा का तबादला आगरा हो गया और हम लोग आगरा आ गए। चाचा जी और चाची जी की हालत ठीक नहीं थी। चाचा जी ने तो किसी तरह अपने को सम्हाला, पर चाची जी यही कहती रहीं कि मैंने क्यों उससे मंदिर जाने के लिए कहा। इस दुर्घटना के बाद वो कभी स्वस्थ नहीं रहीं और सालभर बाद उनका भी देहान्त हो गया। इस प्रकार ऑटो वाले की गलती से एक हँसता-खेलता परिवार दु:ख के सागर में डूब गया।