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ऐसो लागो रंग, छुड़ाए ना छूटे…

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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रंग बरसे… (होली विशेष)…

“रुको अभी… तुम्हारा नंबर ३ है… लाइन से आओ।”
श्रीमती जी ने टोकन नंबर दे दिया है।
मैं बाथरूम के बाहर खड़ा हूँ। शिखा से लेकर नख तक रंगों और गुलाल से मालामाल…। इससे पहले कि कोई मरीज आ धमके और मुझे रंगे हाथों पकड़ ले, इन रंगों को छुड़ाना चाहता हूँ।
काश!, ऐसी कोई वॉशिंग मशीन हमारे घर भी आ जाए, जैसी आजकल राजनीतिक गलियारों में नज़र आती है। न जाने कैसे-कैसे दाग धोकर लोग पाक-साफ नज़र आते हैं। होली के रंग तो इतने नापाक भी नहीं… अभी तक न तो किसी ई.डी. की नज़र पड़ी है और न ही सीबीआई की।
सच में, रंग छुड़ाने की यह कवायद-गर्म पानी, साबुन, सर्फ़, पत्थर का टुकड़ा, कपड़ा, स्क्रब और साथ में श्रीमती जी के तानों की बौछार-“पहले तो शौक-शौक में रंग लगवा लिए! पड़ोसन से ऐसे रंग लगवा रहे थे, सब मालूम है मुझे… मैं लगाऊँ तो मुँह बनाते हो!”
रंग न लगवाने से ज़्यादा रंग छुड़ाने की कवायद में मरा जा रहा हूँ मैं।
एक समय था जब रंग लगवाने से मुझे कोई परहेज़ नहीं था। मैं उस कतार में भी नहीं था, जो रंग न लगवाने के लिए बहानों की लंबी फेरहिस्त लिए फिरते हैं, छुपते-छुपाते दुबके हुए पड़े रहते हैं…, लेकिन जबसे लिखने का रंग चढ़ा है, मैंने देखा है कि मैं हमेशा अपने-आपको रंग छुड़ाने वालों की कतार में खड़ा पाता हूँ।
होली ही नहीं, हर रोज़, जाने कहाँ-कहाँ से रंगबाज़ चले आते हैं-अपने-अपने रंग लेकर। न कुछ पूछते हैं, न मनुहार… बस सीधे रंग लगाने आ धमकते हैं।
मैं कहता हूँ, “यार, रंग भी लगाते हो और हमें बुरा भी नहीं मानने देते… ऐसा क्या, तुमने रोज़ ही होली समझ रखी है ?”
“लगा लो, गर्ग साहब! असली रंग हैं हमारे। ऐसे रंग मिलते कहाँ हैं आजकल ? ये तो बस आपके लिए रिज़र्व छोड़ रखे हैं!”
कुछ को देखता हूँ-खुद बिलकुल साफ़, झकाझक सफ़ेदी में चमकते हुए, लेकिन हथेलियाँ रंगी हुई। दूसरों को रंग लगाने में माहिर, लेकिन अपना शरीर पाक-साफ़ रखते हैं!
कुछ ऐसे रंगबाज़ भी हैं, जो खुद भी रंगे हुए हैं। वे गले मिलने के बहाने अपने रंग मुझ पर छोड़ जाना चाहते हैं। देख रहा हूँ उनके रंग सूख चुके हैं, इतने पुराने कि अब उनसे बू आने लगी है।
मैं नाक पर हाथ रख लेता हूँ, पर जिन्हें रंग लगाना है, उन्हें इससे क्या फर्क पड़ता है ?
मैं बहाने बनाता हूँ-“यार, पहले वाला रंग हटा लूँ न, फिर आना!”
पर वे कहते हैं, “नहीं! हमारा रंग अकेला लगेगा तो इतना जमेगा नहीं… दूसरे रंगों के ऊपर ही चढ़ा लो इसे!” चढ़ा गए ढेरों रंग-एक के ऊपर एक! अब ज़िंदगी निकाल दो इन रंगों को छुड़ाने में।
आईना देखा मैंने… यार, बदरंग-सा हो गया चेहरा… असली पहचान धुंधली पड़ चुकी है।
बस रंग ही रंग! शक्ल दिख ही नहीं रही! बाहर जाकर देखता हूँ… सभी का यही हाल! रंग लगाने वाले हज़ार…, पर कोई रंग छुड़ाने की तरकीब बताए तो उसे देशद्रोही करार दिया जा रहा है। रंगों का ऐसा बंटवारा… ऐसी बंदरबांट मत पूछो!
एक खरबूजा रंग दिखा कर दूसरे खरबूजे का रंग बदल रहा है। अब मुझे लिखना है, लेकिन लिखूँ कैसे ? अगर लिखूँगा, तो ये चारों तरफ के पुते हुए रंग मेरी स्याही में घुलेंगे। मेरी लेखनी की स्याही में जबरन घुलाए गए ये अजनबी रंग उसे अजीब-सी खिचड़ी बना देंगे-नहीं! मुझे दूसरों के थोपे हुए रंग अपनी स्याही में नहीं मिलाने!
मैं छुड़ा रहा हूँ रंगों को, बैठकर…
लगेगा समय।
लो, जैसे ही रंग छुड़ाए, फिर आ धमके वो…। बोले,-“आपके लिखने में रंग जम जाएगा, गर्ग साहब! ट्राई करो…।”
मैंने कह ही दिया-“यार, मुझे रंगहीन ही रहने दो! तुम रंग मत लगाओ। मेरा चेहरा तुम्हारे रंगों के साथ ज्यादा बदरंग लगता है। बिना रंग ही सही, कम से कम मेरा असली चेहरा तो साफ़ दिखता है!”
पर मेरी लेखनी की स्याही का अपना ही रंग है। इसे किसी और रंग की ज़रूरत नहीं। मैं नहीं चाहता कि जैसे इन खोखले रंगों ने चेहरों पर अपनी छाप छोड़ी है, वैसे ही मेरी लेखनी पर भी छोड़ जाएँ। लेखक बना हूँ तो जिम्मेदारी कुछ ज्यादा ही आ गई है, शायद…।