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ऑफिस की चाय

डॉ. सोमनाथ मुखर्जी
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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हमारे ऑफिस में चाय पीने का मज़ा ही कुछ और है,पता नहीं कैन्टीन की चाय में क्या होता था पर लगती बड़ी ही स्वादिष्ट थी। पहले टिफ़िन टाइम के समय हम सब मिलकर एकसाथ कैन्टीन जाते थे, और आपस में गप-शप करते हुए चाय की चुस्की लेते थे,जिससे हमारे तय समय से कभी-कभी बहुत ज्यादा लग जाता था। हमारी चर्चा के विषय अनेक तरह के हुआ करते थे। कभी-कभी चर्चा करते वाद-विवाद हो जाया करता था। वाद-विवाद हो और गरमा-गर्मी न हो,ऐसा तो हो ही नहीं सकता है। और उसी में हमारा समय ख़राब हो जाया करता था। हम इतना मशगूल हो जाते थे कि,समय का कोई ख्याल नहीं रहता था,इसलिए आए-दिन हमें चाय पीकर आने में अक्सर देर हो जाया करती थी।
एक दिन साहब को मुख्यालय के लिए कुछ अति आवश्यक आँकड़े की जरूरत पड़ गई। उन्होंने कार्यालय सहायक मोनू को मोहन बाबू को बुलाने को कहा तो मोनू ने कहा-साहब,मोहन बाबू तो ऑफिस में नहीं हैं…।
साहब बोले-तो श्याम बाबू को बुला दो।
तब मोनू ने कहा-साहब,श्याम बाबू भी ऑफिस में नहीं हैं…।
साहब आश्चर्य में पड़ गए,तो ठीक है रमेश बाबू को ही बुला दो।
मोनू ने फिर अपना डायलाग दोहरा दिया कि-
सर रमेश बाबू भी ऑफिस में नहीं है…।
अब साहब का पारा चढ़ने लगा था,बोले-कहा मर गए हैं ये सारे लोग।
मोनू ने कहा- सर यह सारे लोग मरे नहीं हैं,पर हमारे ऑफिस के कैन्टीन में चाय पीने गए हैं।
साहब ने कहा कि,आपको बोलकर गए हैं क्या ? मोनू ने जवाब दिया,-नहीं सर,वे लोग अपना चश्मा टेबल पर छोड़कर गए हैं,जिससे दूसरों को पता चले कि वे चाय पीने गए हैं।
साहब ने तमतमाते हुए मोनू से पूछा,-तो आप क्यों नहीं गए ! आपको भी जाना था।
तब मोनू बोला,-सर अगर मैं भी चला जाता तो आपके बुलाने पर हाजिर कौन होता..!
अब लगता है अति हो गई थी,सो साहब अपने कक्ष से बाहर निकले और देखते हैं कि सारा ऑफिस खाली है। केवल दो-तीन महिला कर्मचारी अपनी कुर्सी में बैठे आपस में बातें करते हुए दिखी। बस फिर क्या था,साहब ने उपस्थिति पंजी मंगवाई और सभी अनुपस्थित कर्मचारियों को (जो चाय पीने कैंटीन गए थे) उस दिन लाल स्याही से अनुपस्थित दर्ज कर दिया।
हम लोग वापस जब मजे से चाय पीकर आपस में गप-शप करते हुए ऑफिस में घुसे,तब पता चला कि हम लोगों को ऑफिस में नहीं पाकर साहब ने हमारी अनुपस्थिति दर्ज कर दी है। मोहन हमारी यूनियन का नेता था,सो उसने हम लोगों को दिखाते हुए बड़े जोश के साथ साहब के कक्ष में घुसकर साहब से बहुत ही विनम्रता के साथ निवेदन किया कि,साहब जब सभी आज के दिन कार्यालय में उपस्थित हैं,तब उन्हें अनुपस्थित न दिखाएं। इस महंगाई के ज़माने में अगर एक दिन की तनख्वाह कट गई तो हम गरीबों को बहुत मुश्किल होगा। साहब बहुत मान-मनव्वल के बाद मान गए और निर्देश दिए कि,आगे से कैन्टीन में जाकर समय बर्बाद नहीं करके ऑफिस में ही चाय बनवा ली जाए। इससे सभी को अपनी कुर्सी में बैठे-बैठे चाय मिल जाएगी और समय भी बर्बाद नहीं होगा।
हम सभी ने साहब का यह आदेश मान लिया,वैसे हमारे पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था।
हम सभी ने चंदा करके उसी दिन चाय की सामग्री मंगवा ली,घर से अतिरिक्त बर्तन और प्याली भी लेकर आ गए। हम सभी ने मिलकर रमेश बाबू को अपना कैशियर चुना और सभी ने अपने-अपने हिसाब का पैसा उसे दे दिया। इसमें कहा गया कि कार्यालय सहायक,जिनका काम होगा चाय बनाना, उसे सभी को देना और उसके के बाद सभी प्याली को इकट्ठा करके उसकी सफाई करना,इसलिए उन्हें चाय के लिए कोई पैसा देने आवश्यक नहीं। इसमें सभी मान गए।
पहले दिन मोनू ने चाय बनाई और सभी को दी। चाय ठीक-ठाक ही बनाई थी। रमेश बाबू बोले कि कल से चाय बिना दूध की बनाएंगे। इससे पेट में गैस,अम्लता, और मुँह में खट्टापन नहीं होता है। सभी ने मान लिया। दूसरे दिन सोनिया( कार्यालय सहायिका) ने वही चाय बनाई,उससे जैसा बोला गया था बिना दूध की। चाय का रंग काला-सा था,सो लोग उसे एक-दो घूंट लेकर ही तुरंत थू-थू करने लगे,क्योंकि चाय बहुत ही कड़वी और पीने लायक नहीं थी। उस दिन बाहर से चाय मंगवाकर पी गई।
अगले दिन फिर मोनू ने चाय बनाई। उसने चाय को कम उबाला और २-४ बूंद नीम्बू की भी डाल दी थी। इससे सभी को उसका स्वाद बहुत बढ़िया लगा। अगले दिन फिर सोनिया ने चाय बनाई। उसने सोनू जैसी ही चाय बनाई,पर स्वाद थोड़ा और अच्छा था। पूछने पर शरमाकर बोली-जी मैंने चाय में नीम्बू के रस के साथ थोड़ा-सा नमक भी मिला दिया है। सभी बहुत खुश हुए,क्योंकि पहली बार एक नए प्रकार के स्वाद की चाय पी रहे थे।
लगता है कि मोनू और सोनिया में अब तो बेहतर चाय बनाने की प्रतियोगिता शुरू हो गई थी कि,कौन सबसे बढ़िया चाय बनाएगा। अबकी बार तो कोई भी अपनी चाय बनाने की विधि दूसरे से साझा करने को तैयार नहीं था। हर रोज नए-नए प्रकार के स्वाद की चाय मिलने लगी। दोनों चाय बनाने में अपने-अपने प्रयोग किया करते थे। कोई अदरक डालता तो दूसरा पुदीना की पत्ती या तुलसी पत्ती का प्रयोग करता। हम लोग उनके चाय की प्रयोगशाला के बलि का बकरा बन गए। एक दिन तो अति हो गई। उस दिन चाय की खुशबू काफी अच्छी आ रही थी। मैंने जैसे ही चुस्की ली,मुँह का स्वाद बिगड़ गया। ऐसा लगा कि जैसे कोई काढ़ा पी लिया हो। पूछने पर पता चला कि चाय बनाने का परीक्षण करते-करते वे लोग इतना आगे बढ़ गए थे कि,चाय में गरम मसाला डाल दिया था…।
सभी ने मिलकर मोनू और सोनिया को हाथ जोड़कर चाय बनाने के लिए मना किया,पर वे लोग चाय बनाने की प्रतियोगिता में इतना मशगूल हो गए थे कि चाय नहीं बनाने की बात मान ही नहीं रहे थे। बड़ी मुश्किल से उन्हें राजी किया गया। अगले दिन से कैन्टीन वाला अपने आदमी के हाथ केतली में चाय भेज दिया करता था। …और इस प्रकार हमारे ऑफिस में चाय बनाने का कार्यक्रम ख़त्म हुआ।

परिचय- डॉ. सोमनाथ मुखर्जी (इंडियन रेलवे ट्रैफिक सर्विस -२००४) का निवास फिलहाल बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में है। आप बिलासपुर शहर में ही पले एवं पढ़े हैं। आपने स्नातक तथा स्नाकोत्तर विज्ञान विषय में सीएमडी(बिलासपुर)एलएलबी,एमबीए (नई दिल्ली) सहित प्रबंधन में डॉक्टरेट की उपाधि (बिलासपुर) से प्राप्त की है। डॉ. मुखर्जी पढाई के साथ फुटबाल तथा स्काउटिंग में भी सक्रिय रहे हैं। रेलवे में सहायक स्टेशन मास्टर के पद से लगातार उपर उठते हुए रेल के परिचालन विभाग में रेल अधिकारी के पद पर पहुंचे डॉ. सोमनाथ बहुत व्यस्त रहने के बावजूद पढाई-लिखाई निरंतर जारी रखे हुए हैं। रेल सेवा के दौरान भारत के विभिन्न राज्यों में पदस्थ रहे हैं। वर्तमान में उप मुख्य परिचालन (प्रबंधक यात्री दक्षिण पूर्व मध्य रेल बिलासपुर) के पद पर कार्यरत डॉ. मुखर्जी ने लेखन की शुरुआत बांग्ला भाषा में सन १९८१ में साहित्य सम्मलेन द्वारा आयोजित प्रतियोगिता से की थी। उसके बाद पत्नी श्रीमती अनुराधा एवं पुत्री कु. देबोलीना मुख़र्जी की अनुप्रेरणा से रेलवे की राजभाषा पत्रिका में निरंतर हिंदी में लिखते रहे एवं कई संस्था से जुड़े हुए हैं।

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