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कम योगदान नहीं रहा मण्डी के सेनानियों का

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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आजादी का अमृत महोत्सव….

गुलामी की जंजीरों से मुक्ति का संघर्ष लगभग विश्व के अधिकतर देश समय- समय अपने-अपने ढंग से करते आए हैं और उसी कड़ी में एक नाम हमारे भारत देश का भी है। भारत वर्ष के इतिहास की एक समृद्ध कहानी है। जहां यह देश विभिन्न आतताइयों से अपनी संस्कृति और सभ्यता की रक्षा के लिए निरन्तर कडा संघर्ष करता रहा, वहीं इसे एक लम्बे दौर तक व्यापार के बहाने हिन्दुस्तान के शासक बन बैठे अंग्रेजों की गुलामी का भी शिकार होना पड़ा।भारतीय जातिवाद, धर्मवाद और साम्राज्यवाद को उकसा-उकसा कर अंग्रेजों ने सत्ताधीशों के साथ-साथ आम जनता को भी आपस में लड़वा-भिड़वा कर ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति का सहारा ले कर पूरे भारत वर्ष पर धीरे-धीरे अधिकार प्राप्त किया। जब भारत के रियासती शासक वर्ग के साथ आम जनता को भी अंग्रेजी चाल का पता चला, तो अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति पाने के लिए भारतीय शासक वर्ग के साथ-साथ आम जनता के जागरूक तबके ने भी मिलकर अंग्रेजी शासन व्यवस्था के खिलाफ आजादी की जंग छेड़ दी। फिर वह चाहे १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की बात हो, या फिर असेंबली हाल के बम विस्फोट की घटना। चाहे फिर आजाद हिन्द फौज की स्थापना की बात हो, या भारत छोड़ो आंदोलन की मुहिम। इन सभी प्रक्रियाओं में एक लम्बा वक्त जरूर लगा, पर यह भी सत्य है कि यही वे घटनाक्रम थे, जिनकी बदौलत आज हम स्वतंत्र भारत में जी रहे हैं और ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ उत्सव मना रहे हैं। यह भी सच है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के इस महा अभियान में गरम और नरम दल दोनों ने अपनी-अपनी भूमिका अपने-अपने तरीके से निभाई, पर न जाने आज आजादी के ७५ साल बीत जाने के बाद हम क्यों उन तमाम वीर शहीद बहादुरों को भूलते से जा रहे हैं, जिन्होंने हमें आजादी की यह सौगात दिलाने में अंग्रेजी हुकूमत की कड़ी यातनाओं के साथ-साथ अपने प्राणों की आहुति भी खुशी-खुशी दी। यदि आज हम औपचारिकता के तौर पर विशेष अवसरों के मौकों पर चन्द स्वतंत्रता सेनानियों को और आजादी के प्रमुख नेताओं को याद करते भी हैं, तो उसमें भी एक अधूरापन नजर आता है। क्या मात्र इन चन्द कद्दावर नेताओं या स्वतंत्रता सेनानियों ने ही भारत को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाई ? यदि ऐसा ही था, तो फिर भारत इतने लम्बे दौर तक गुलाम क्यों रहा ? सभी जानते हैं कि अकेला चना पहाड़ नहीं फोड़ता, पर फिर भी पूरी मुहिम का अधिकांश श्रेय उस मुहिम के मुख्य पात्र को जाता है, परन्तु मुहिम को सफल बनाने में अपना योगदान देने वाले अनेक साथियों को भी तो उस सन्दर्भ में याद किया जाना चाहिए , जिन्होंने उसको कामयाब बनाया होता है, पर नहीं, यह एक परिपाटी-सी बन गई है।
जो लोग इस मुहिम के नायक थे या कहो कि रसूखदार व्यक्तित्व थे, उन्हें तो आज भी हम याद करते हैं, पर जिन्होंने जमीनी स्तर पर इस पूरे घटनाक्रम को गति दी, उन्हें इतिहास के पन्नों में स्थान तक नहीं दिया गया। यह तो उनके साथ न्याय नहीं है और साथ-साथ यह रवैया नई पीढ़ी में भी नकारात्मकता भरता है कि करता कोई और है और वाहवाही किसी और को ही मिलती है। जिसका जो मान-सम्मान बनता है, वह उसे मिलना चाहिए। तभी किसी कार्य या बात का उत्कर्ष बना रहता है, वरना नकारात्मकता स्वाभाविक है।
आज आजादी के अमृत महोत्सव के सुअवसर पर सब मिलकर इस बात का मन्थन करें कि, आजादी को दिलाने में अपना योगदान और बलिदान देने वाले ऐसे कितने स्वतंत्रता सेनानी थे, जो हमारे क्षेत्र या जिले के थे। इतिहास के पन्नों में उनका नाम न होने के कारण आज समाज उनके बलिदानों को थोड़ा-सा भी नहीं जानता। जिला मण्डी (हिमाचल प्रदेश) से ऐसे कई नाम हैं, जिन्होंने इस लड़ाई में योगदान तो दिया पर उन्हें इतिहास या लोक साहित्य में वह स्थान नहीं मिल पाया, जो मिलना चाहिए था। हाँ, कृष्ण कुमार नूतन और डॉ. गंगाराम राजी ने अपने साहित्य में कुछ जिक्र इन सेनानियों का जरूर किया है, पर उससे शायद इन्हें वह सम्मान मिला हो, जिसके ये हकदार हैं। इन स्वतंत्रता सेनानियों में कुछ यूँ है-
-रानी खैरागढ़ी उर्फ रानी ललिता कुमारी
यह नाम जिला मण्डी के स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रगण्य है। इनका पैतृक घर खैरागढ़ (उत्तर प्रदेश) में था, जहां से विवाह मण्डी के राजा भवानी सेन से हुआ। कुछ लोग मानते हैं कि रानी के राष्ट्र प्रेम से प्रभावित होकर जनता उन्हें प्यार से रानी खैरागढ़ी कहती और यही नाम मशूहर हो गया। उत्तर प्रदेश में उन दिनों अंग्रेजी शासन के खिलाफ बगावत चर्म पर थी। जाहिर है कि कुमारी ललिता भी पढ़ी-लिखी सजग नारी होने के नाते उन बगावती सुरों में ताल देने में अहम किरदार रही होगी।रानी का यह चस्का विवाह के बाद भी कम नहीं हुआ। जब उसने देखा कि मण्डी रियासत की जनता के साथ न्याय नहीं हो रहा है और राजा तथा मंत्री भी जनता का शोषण ही कर रहे हैं, तब रानी ने जनकल्याण और देश प्रेम की भावना राज्य की जनता में भरना शुरू की। यह खबर राजा को अंग्रेजों ने और चाटुकार मंत्रियों ने गुप्त रूप से देना शुरू कर दी थी और रानी के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया था। राजा मंत्रियों और अंग्रेजों की बातों में आ कर रानी से विमुख होता रहा। नौबत यहां तक आ गई कि रानी को राजा के प्रेम से वंचित रहना पड़ा, परन्तु रानी ने हार नहीं मानी। जब रानी को लगा कि राजा उसकी बातें नहीं मानेगा तो वह स्वयं राज्य का कामकाज देखने लगी, परन्तु वहां भी मंत्रियों ने रानी के आदेशों को नकारना शुरू किया। तब रानी की यह सोच उसके अविवाहित जीवन के बगावती तेवरों को और ताव देती है तथा रानी इस रियासत में आजादी के आंदोलन की प्रमुख पैरोकार बनी। कुछ जानकारों का कहना है कि परिस्थितियां तो यहां तक बिगड़ गई थी कि रानी को इस सन्दर्भ में राजा भवानी सेन से भी दो-दो हाथ करने पड़े। यानी पहाड़ी रियासतों में रानी खैरागढ़ी ने झांसी की रानी की भूमिका निभाई।
-भाई हिरदा राम
इनका नाम मण्डी रियासत के क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानियों में प्रमुखता से लिया जाता है। लोगों में इनको ‘भाई’ के नाम से प्रसिद्धी मिली थी। स्वामी कृष्णानंद जी से प्रेरणा ले कर ये क्रांति पथ पर चल पड़े थे। धीरे- धीरे ये रासबिहारी बोस के विश्वास पात्र बने। ३१ दिसम्बर १९१४ की विरपाली धर्मशाला में हुई क्रांतिकारियों की गुप्त बैठक में इन्हें बम बनाने का काम दिया गया। यह बात भी खासी चर्चा में है कि भगत सिंह जी ने जो बम असैम्बली हाल में फेंका था, वह भाई हिरदा राम ने बनाया था। इन्हें अंग्रेजी सरकार द्वारा धमाके की साजिश में पकड़े जाने पर फांसी की सजा सुनाई गई, परन्तु बाद में वह आजीवन कारावास की सजा में बदली गई। कारावास की सजा पाने के लिए इन्हें अंडमान की जेल में भेजा गया। वहां पर वीर सावरकर और भाई हिरदा राम एक ही कोठरी में रखे गए थे। सन 1947में जब भारत आजाद हुआ तो भाई जी को जेल से मुक्ति मिली। इनकी याद में मण्डी शहर के बीच प्रतिमा बनाई गई है।
-कृष्णा नन्द स्वामी
स्वामी जी मण्डी शहर के निवासी थे। इनके स्वतंत्रता आन्दोलन का क्षेत्र सिंध प्रांत रहा। स्वामी जी ने ३५ वर्षों के अपने स्वतंत्रता संघर्ष में कई बार जेल की सजा भुगती। यही वे कारण थे, जिनके चलते सरदार पटेल ने इन्हे सिंध के गांधी की उपाधि दी थी। इन्होंने २ लाख से भी अधिक हिंदुओं को समुद्र के रास्ते सिंध से मुम्बई और अहमदाबाद पहुंचाया था। इनकी जेल यातनाओं में १ वर्ष का कारावास, २ साल का कारावास आदि है। भाई हिरदा राम जी ने भी स्वामी जी से ही क्रान्ति की प्रेरणा पाई थी।
-अर्जुन सिंह राणा
अर्जुन सिंह राणा का जन्म ३० मई १९२० को जिला मंडी के नेरचौक नामक स्थान में हुआ। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में बढ़-चढ़कर के भाग लिया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में राणा जी ने कैप्टन के पद पर सेवाएं दी थी। राणा जी ने १ वर्ष तक का कारावास भी भोगा।
-केशव चंद्र शर्मा
केशव चन्द्र शर्मा मण्डी के रिवालसर नामक स्थान में रियूर नामक ग्राम के निवासी थे। ये नौकरी करते थे परंतु आंदोलन का सहयोग करने के लिए इन्होंने नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया था। रियासती विलय आंदोलन में शर्मा जी ने भी भरपूर संघर्ष किया था। शर्मा जी ने जेल में सजा भी काटी थी ।
-खेम चंद
खेम चंद जी का जन्म लगभग १९०४ के आसपास माना जाता है। इन्होंने पिता के साथ जलावतन रहने से देशभक्ति की भावना प्राप्त की थी। मंडी राज्य में प्रजामंडल आंदोलन में खेम चंद जी ने सक्रिय भूमिका अदा की थी। इस दौरान इन्हें मुंशी की नौकरी से भी निष्कासित कर दिया गया था। खेम चंद जी ने मंडी सत्याग्रह में भी भागीदारी करके आजादी के संघर्ष में योगदान दिया था।
-गुलजारी राम
गुलजारी राम का जन्म १० अगस्त १९१५ ई. में मंडी के सरकाघाट इलाके में हुआ था। आजाद हिंद फौज में इन्होंने बतौर सैनिक काम किया। गुलजारी राम जी सिंगापुर, रंगून और मलाया आदि स्थानों में लंबे कारावास में भी रहे। इन्हें बिना वेतन के निष्कासित कर दिया गया था और ५ वर्ष तक युद्ध बंदी बनाकर कठिन यातनाएं दी गई थी।
-गौरी प्रसाद
गौरी प्रसाद लाहौर से मेडिसिन में उपाधि लेकर आए थे। उन दिनों लाहौर स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख केंद्र बन चुका था, इसलिए प्रसाद जी ने वहीं से स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने की प्रेरणा प्राप्त की। इस आंदोलन में गौरी प्रसाद जी ने बढ़-चढ़कर योगदान दिया। १९४० से लेकर ४७ तक प्रजामंडल के प्रधान रहे। इसी दौरान उन्हें जेल की सजा भी खानी पड़ी थी।
-जे.पी. बागी
जिला मंडी में अंग्रेजों के खिलाफ हमेशा बगावती तेवर रखने वाले जे.पी. बागी को ‘बागी’ नाम इसी कारण प्राप्त हुआ था। लाहौर षड्यंत्र के जुर्म में उन्हें ६ साल तक के कारावास की सजा हुई थी। आपने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया। कुल साढ़े ग्यारह वर्ष तक जेल यात्रा में रहे। भारत सरकार ने इन्हें ताम्रपत्र से सम्मानित किया था।
-नरेंद्र पाल जोशी
नरेंद्र जी जिला मंडी के लूनापानी के निवासी थे। इन्होंने १९१२ में एक अंग्रेज की हत्या की थी। यही इनका स्वाधीनता संग्राम में प्रवेश का प्रथम सोपान था। पुलिस मुठभेड़ में इन्हें गोली लगी थी। जलियाँवाला बाग कांड के बाद अंग्रेजों का विरोध करते हुए पकड़े गए और ५ साल तक जेल में ही रहे। रावलपिंडी बम विस्फोट में ३ वर्ष का कारावास हुआ। १९३४ में पुनः ३ वर्ष की सजा हुई।
-बुद्ध भाट
भाट जी मंडी की तत्कालीन सुकेत रियासत के सुंदर नगर में रहते थे। इनकी भागीदारी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से रही। इन्होंने कई वर्षों तक कठिन सजा भी काटी। रियासत के विरुद्ध क्रांति तथा षड्यंत्र के झूठे आरोप में अभियोग तथा लंबे समय के लिए कारावास की यातनाएं भाट जी ने सही। सुकेत रियासत की जेल तथा पंजाब जेल में ११ मास, रावलपिंडी में १०मास तथा शिमला आदि में कारावास काटा।
-सन्त सिंह आजाद
सन्त सिंह जी का जन्म १९१४ में कटोह नामक गांव में हुआ था। जब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज खड़ी की तो सन्त सिंह आजाद भी फौज में लेफ्टिनेंट के पद पर शामिल हुए। फौज का हिस्सा होने के नाते ही इन्होंने नाम के साथ ‘आजाद’ शब्द जोड़ लिया था। सन्त सिंह ने मांडला में ‘दिल्ली चलो’ का नारा बुलन्द किया तथा दलेल नामक स्थान पर अंग्रेजों पर हमला किया था। इसके बाद अंग्रेज सेना द्वारा गिरफ्तार किए गए। १९४७ में पुनः ३ मास के लिए मण्डी की जेल में कारावास काटा। छूटने पर पुनः सत्याग्रह आन्दोलन में सक्रियता से जुट गए।भारत सरकार ने इन्हें १९७२ में ताम्र-पत्र से सम्मानित किया।
कुछ नायक ऐसे भी थे, जिन्होंने अपने परिवार की कोई परवाह न करते हुए देश से अंग्रेजों को खदेड़ने के कार्य में रात-दिन एक कर दिया। मण्डी एक ऐसा जिला रहा है, जहां से बहुतेरे स्वतंत्रता सेनानी हुए हैं। इतना ही नहीं, इन स्वतंत्रता प्रेमियों को राष्ट्रीय स्तर पर जाना जाता था। इस प्रकार अनेक रणबांकुरों ने अपने घर-परिवार की परवाह छोड़ कर देश की आजादी के लिए अपना बलिदान दिया, परन्तु उन्हें समय के प्रवाह में जमाने ने भुला दिया।यह अपने-आपमें एक गम्भीर विडम्बना है। यही वे कारण हैं, जिनके चलते समाज में कोई भी किसी कुव्यवस्था के खिलाफ खड़ा हो कर अपना बलिदान नहीं देना चाहता, क्योंकि समाज की काम निकल जाने के बाद भूल जाने की आदत पता है।
अतः आज समाज को जरूरत है उन आजादी के रणबांकुरों के इतिहास को खोजने की, उस इतिहास को सबके सामने लाने की तथा युवा पीढ़ी को पढ़ाने की, ताकि युवा पीढ़ी को प्रेरणा और उन आजादी के परवानों को सम्मान मिल सके, जो वक्त के गदर में कहीं खो से गए हैं।

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