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कुछ ज्ञान के दीये भी जलाते चलें…!

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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दीपावली का पर्व अपने-आपमें कई पर्वों को समेटे आता है। इतने विविध रंगी त्यौहार,किसी एक त्यौहार में समाहित हों फिर भी उनकी प्रकृति अलग-अलग रहे,ऐसा शायद हिंदू धर्म में ही संभव है। दीपावली का त्यौहार क्यों शुरू हुआ,किसने शुरू किया,इन सवालों को उल्लास के कालीन के नीचे सरका दें तो भी एक बात माननी ही पड़ेगी कि जिसने और जब भी इसकी शुरूआत की होगी,तब उसके मन में आनंद की पराकाष्ठा की छूने की चाहत निस्संदेह रही होगी। वरना,दूसरा ऐसा कौन-सा ऐसा पर्व है,जो पशु प्रेम,स्त्री मुक्ति,भाई-बहन के शाश्वत प्रेम से लेकर धन की देवी,आरोग्य देवता,शुभ-लाभ और जीवन में असमाप्त प्रकाश की मंगल कामना के साथ ही समाप्त होता है। लक्ष्मी यानी वैभव इसके केन्द्र में है, क्योंकि विश्व के सभी कार्य व्यापार लक्ष्मी के इर्द-गिर्द घूमते हैं। इसी लक्ष्मी का प्रकट रूप अर्थ व्यवस्था और अर्थ तंत्र है। सारी दुनिया आज इसकी गुलाम है। दुनिया के लिए लक्ष्मी साधन और साध्‍य है। हम भारतीयों और खासकर हिंदुअों के लिए लक्ष्मी आराध्य भी है। लक्ष्मी का वैशिष्ट्य है कि वह स्वयं तो राज करती ही है,कई जगह कला और संस्कृति की देवी सरस्वती और बुद्धि देवता गणेश से भी इस संपदा को साझा करती है। इसलिए,लक्ष्मी का यह दीपोत्सव ज्ञान और संस्कृति का दीपोत्सव भी है।
हाल के वर्षों में दीपावली भगवान राम के आसपास केन्द्रित होती जा रही है। कहते हैं कि भगवान राम लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे थे तो राम भक्तों ने दीपों के प्रकाश से उनका स्वागत किया था। ये पौराणिक स्मृतियां अब राजनीति के रथ पर सवार होकर परम्परा के उत्सव में तब्दील हो रही हैं। ऐसे में राम का अयोध्‍या लौटना ही काफी नहीं है,उनका कल्याणकारी राज ही पर्याप्त नहीं है,असत्य पर उनकी विजय ही संतोषप्रद नहीं है,इस विजय का उल्लास विजय से कई गुना बड़ा है और वह वैसा दिखना और महसूस होना भी चाहिए। इस साल अयोध्या में ५.५१ लाख दीयों के प्रकाश का विश्व रिकाॅर्ड बना है। आकांक्षा यही है कि इन लाखों दीयों का प्रकाश,दीयों के लौ की कम्पन उन तमाम आसुरी शक्तियों को कंपकंपा दे,जो ‘राम राज’ में रोड़ा बनना चाहते हैं। इस मायने में यह प्रतीकों का उत्सव है। इसे जीभर के मनाएं,लेकिन इस बात का भी ध्यान रखें कि दीपोत्सव केवल जय-जयकार का ही पर्व नहीं है। वह प्रकाश के सामूहिक शक्ति प्रदर्शन का पर्व भी नहीं है। अपने बाह्य रूप में यह भले ही विजय का पर्व हो,लक्ष्मी की आराधना का पर्व हो,लेकिन अपनी आत्मा में वह ज्ञान के आलोक का पर्व है। ज्ञान का आलोक केवल आरती या जयघोषों से नहीं फैलता। वह प्रकाशित होने की कीमत मांगता है। यह कीमत बुद्धि और विवेक को अदा करनी होती है। विजयोल्लास की मदहोशी में कहीं ये ज्ञान के दीये भभकने न लगें। उपलब्धियों की दीये केवल तेल या घी से नहीं जलते। वह ज्ञान,साधना और विवेक से जलते हैं। इस दिवाली क्यों न कुछ ज्ञान के दीये भी जलाते चलें…!

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