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क्यों न मृत्यु का भी उत्सव किया जाए!

सलिल सरोज
नौलागढ़ (बिहार)

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एकमात्र शाश्वत सत्य यही,
शिव के त्रिनेत्र का रहस्य यही
चंडी का नैसर्गिक रौद्र नृत्य यही,
कृष्णा-सा श्यामला,राधा-सा शस्य यही।
तो क्यों न मीरा-सा इसका भी विषपान किया जाए॥

ये अनादि है,ये अनंत है,
ये गजानन का त्रिशूली दंत है
यही है गोचर,यही अगोचर,
यही तीनों लोकों का महंत है।
तो क्यों न देवों की तरह इसका भी रसपान किया जाए॥

यही अनल है,यही अटल है,
यही शांत है,यही विकल है
यही है भूत,यही भविष्यत,
ब्रह्मांडों का अस्तित्व सकल है।
तो क्यों न भीष्म-सा इसको भी जीवन दान दिया जाए॥

यही है हर्ता,यही है कर्ता,
यही है दाता,यही है ज्ञाता
समय के व्यूह पर अनवरत सवार,
यही है माता,यही विधाता।
तो क्यों न जननी की तरह इसका भी सम्मान किया जाए॥

 

परिचय-सलिल सरोज का जन्म ३ मार्च १९८७ को बेगूसराय जिले के नौलागढ़ गाँव में(बिहार)हुआ है। आपकी आरंभिक शिक्षा कोडरमा (झारखंड) से हुई है,जबकि बिहार से अंग्रेजी में बी.ए तथा नई दिल्ली से रूसी भाषा में बी.ए सहित समाजशास्त्र में एम.ए.भी किया है। एक निर्देशिका का सह-अनुवादन,एक का सह-सम्पादन,स्थानीय पत्रिका का संपादन एवं प्रकाशन किया है। सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार एवं ज्वलन्त विषयों पर पैनी नज़र ही आपकी सम्प्रति है। सोशल मीडिया पर साहित्यिक धरोहर को जीवित रखने की अनवरत कोशिशकरते हैं। ३० से अधिक पत्रिकाओं व अखबारों में इनकी रचनाओं का निरंतर प्रकाशनहो चुका है। भोपाल स्थित फॉउंडेशन द्वारा अखिल भारतीय काव्य लेखन में गुलज़ार द्वारा चयनित प्रथम २० में आपको स्थान मिला है। कार्यालय की वार्षिक हिंदी पत्रिका में भी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं।

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