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जनता क्यों ढोए भ्रष्टाचार का भार

ललित गर्ग

दिल्ली
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विभिन्न राजनीतिक दलों, विभिन्न प्रांतों की सरकारों, विभिन्न गरीब कल्याण की योजनाओं, न्यायिक क्षेत्र एवं उच्च जांच एजेंसियों में भ्रष्टाचार की बढ़ती स्थितियाँ गंभीर चिन्ता का विषय है। ऐसा लगता है कि आज हम जीवन नहीं, राजनीतिक, न्यायिक एवं प्रशासनिक मजबूरियाँ जी रहे हैं। ऐसा भी लगता है न्याय, राजनीति एवं प्रशासन की सार्थकता एवं साफ-सुथरा उद्देश्य नहीं रहा, बस स्वार्थपूर्ति का जरिया बन गया है। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा एक असामान्य घटनाक्रम के तहत भ्रष्टाचार के एक मामले में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो के ३ अधिकारियों को उसी ब्यूरो की हिरासत में भेज देना न केवल चिन्ताजनक एवं शर्मनाक है, बल्कि विडम्बनापूर्ण है। भाजपा सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ केन्द्रीय एजेंसियों की कार्रवाई का बिगुल बजाया हुआ है, जिससे राजनीति में बढ़ रहे भ्रष्टाचार पर नियंत्रण का नया सूरज उदित होता हुआ दिखाई दे रहा है, लेकिन ब्यूरो जैसी एजेन्सी में भ्रष्टाचार का पर्दाफाश होना इस सूरज को उदित होने से पहले ही अंधेरे की ओट में ले रहा है। इससे भी बड़ी त्रासदी है गुजरात में ७१ करोड़ ₹ के ‘मनरेगा’ घोटाले में मंत्री बच्चू भाई खाबड़ के २ बेटों का गिरफ्तार होना। राजनीति एवं कार्यपालिका के साथ न्याय पालिका के क्षेत्र में न्यायाधीश यशवंत वर्मा के सरकारी आवास से बड़ी मात्रा में कथित तौर पर नकदी मिलना भ्रष्टाचार के सर्वत्र व्याप्त होने को दर्शा रहा है। जनता कब तक भ्रष्टाचार का अनचाहा भार ढोती रहेगी ? कैसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भ्रष्टाचारमुक्त आदर्श राष्ट्र-निर्माण के अपने लक्ष्य को हासिल कर सकेंगे ? कैसे आजादी के अमृत काल में ईमानदार राष्ट्र बना पाएँगे ?

ब्यूरो-भ्रष्टाचार एकमात्र मामला नहीं है, बल्कि यह विभिन्न विभागों के अधिकारियों के बीच एक ‘बड़ी साजिश’ को दर्शाता है, जो अनुचित लाभ या प्रभाव डालने समेत इन विभागों के कामकाज में हस्तक्षेप करने के लिए रिश्वत के मामले को दर्शाता है। अब सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी ऐसे मामलों में लिप्त हों तो समस्या की गंभीरता को सहज ही समझा जा सकता है। निश्चित ही भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में यह एक दुर्लभ एवं संवेदनशील मौका है। अब इसकी वजह से न्यायपालिका की गरिमा को ठेस न पहुंचे और जनता का भरोसा बना रहे, इसके लिए पूर्व मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने मामले से जुड़ी जानकारियों को देश से साझा किया। उनकी पहल पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने अपनी संपत्ति का ब्यौरा भी सार्वजनिक किया। उसकी रिपोर्ट सरकार व राष्ट्रपति के पास भेजकर महाभियोग की सिफारिश कर दी गई है। महाभियोग ही एकमात्र तरीका है, जिससे सर्वोच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के मौजूदा न्यायाधीश को हटाया जा सकता है, लेकिन आजाद भारत के इतिहास में आज तक ऐसा नहीं हुआ। इसके पहले, भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे कलकत्ता उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन के खिलाफ महाभियोग चला था। विचार करने वाली बात यह है कि क्या न्यायपालिका की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखते हुए प्रक्रिया की जटिलता को कम किया जा सकता है ?, ताकि भ्रष्टाचार की उचित सजा उनको मिल सके, ऐसी प्रक्रिया से ही न्यायपालिका बिना किसी डर, दबाव या लालच के अपना कर्तव्य भी निभा सके।
भ्रष्टाचार की परतें अपराधियों एवं भ्रष्ट लोगों को बचाने तक ही सीमित नहीं है, अब तो यह गरीबों का निवाला भी छीन रही है। सरकार गरीबों के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाएं चलाती हैं, लेकिन बड़ा स्थापित तथ्य है कि अधिकतर सरकारी योजनाएं अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पातीं, भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना यानी ‘मनरेगा’ की स्थिति भी इससे अलग नहीं है। इसकी शुरुआत इस मकसद से की गई थी कि गरीब परिवारों को साल में कम से कम १०० दिन रोजगार मिल सकेगा और वे अपना भरण-पोषण कर सकेंगे, मगर शुरूआती वर्षों में ही इसमें भ्रष्टाचार उजागर होने लगे थे। इसी का उदाहरण गुजरात में फर्जी तरीके से कार्य निष्पादन के दस्तावेज तैयार कर करोड़ों की रकम भुना लेने का है। इस घोटाले ने इसलिए राजनीतिक रंग ले लिया है, कि इसमें वहां के पंचायत और कृषि राज्यमंत्री के बेटों को भी गिरफ्तार किया गया है।
गुजरात ही नहीं, देश के अन्य हिस्सों में भी ‘मनरेगा’ में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के किस्से उजागर हो रहे हैं। मुजफ्फरपुर में भी ‘मनरेगा’ भ्रष्टाचार का शिकार हो गया है।फर्जी हाजिरी और तस्वीर घोटाले से हर दिन लाखों ₹ की लूट हो रही है। नेता, मंत्री एवं प्रशासनिक अधिकारी अच्छे-बुरे, उपयोगी-अनुपयोगी का फर्क नहीं कर पा रहे हैं। मार्गदर्शक यानी नेता शब्द कितना पवित्र व अर्थपूर्ण था, पर अब नेता खलनायक है। नेतृत्व व्यवसायी एवं भ्रष्टाचारी बन गया है। आज नेता शब्द एक गाली है, जबकि नेता तो पिता का पर्याय था। उसे पिता का किरदार निभाना चाहिए था।

अब तक आम आदमी पार्टी, कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, राष्ट्रीय जनता दल आदि राजनीतिक दलों में ही भ्रष्टाचार के किस्से सामने आ रहे थे, अब भाजपा नेताओं एवं मंत्रियों पर भी ऐसे आरोप लगना ज्यादा चिन्ताजनक है। प्रश्न भाजपा का ही नहीं है, भ्रष्टाचार जहां भी हो, उसके खिलाफ बिना किसी पक्षपात के कार्रवाई की जानी चाहिए। भाजपा एक राष्ट्रवादी पार्टी है, नया भारत एवं सशक्त भारत निर्मित करने के लिए तत्पर है, तो उस पार्टी के भीतर भी यदि भ्रष्टाचार है तो उसकी सफाई ज्यादा जरूरी है। राजनीतिज्ञों, न्यायाधीशों, प्रशासनिक अधिकारियों की साख गिरेगी, तो राष्ट्र की साख बचाना भी आसान नहीं होगा। चहुंओर पसरे बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार से विकास के दावों का विद्रूप रूप ही सामने आता है। हमारे पास कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं राजनीति ही समाज की बेहतरी का भरोसेमंद रास्ता है, और इसकी साख गिराने वाले कारणों में अपराधीकरण और भ्रष्टाचार के बाद तीसरा क्रम कीचड़ उछाल राजनीति का भी है, जिसमें गलत को गलत नहीं माना जाता। ये तीनों ही ऐसेे औजार हैं, जो देश को तबाही की ओर ले जाते हैं। अपराधीकरण और भ्रष्टाचार का मसला काफी गहरा है और इससे खिलाफ आरपार की लड़ाई के लिए काफी कठोरता, निष्पक्षता, वक्त और ऊर्जा की जरूरत है, सख्त कदम उठाने की अपेक्षा है। ऐसी ही उम्मीदभरी एवं भ्रष्टाचार-निरोधक कार्रवाई से भारत का लोकतंत्र समृद्ध हो सकेगा।