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तकनीक ने किया बच्चों को पुस्तकों से दूर

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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कुछ दशकों पहले तक बच्चों के हाथ में पुस्तकें हुआ करती थीं, अब उनके हाथों में अक्सर मोबाइल या टी.वी. का रिमोट दिखता है, वह कम्प्यूटर पर खेल खेलते नजर आते हैं। वर्तमान हालात ये हैं कि बच्चे पाठ्यक्रम की पुस्तकों के अलावा शायद ही कुछ पढ़ते हों। यह बेहद चिंता का विषय है। अस्सी और नब्बे के शुरूआती दशक को बच्चों की अध्ययन आदत (स्वभाव) के लिहाज से स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। उस समय टी.वी. और कॉर्टून चैनल की मौजूदगी काफी कम थी। असल में तकनीक ने बच्चों की मौलिकता को प्रभावित किया है ।
संयुक्त राष्ट्र की पहल पर दुनियाभर में ‘अंतरराष्ट्रीय बाल पुस्तक दिवस’ (२ अप्रैल) मनाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य पुस्तकों से बढ़ती बच्चों की दूरियों को कम करना है। पुस्तकें ही लोगों की सच्ची दोस्त होती हैं। इन्हीं से अर्जित किया ज्ञान भविष्य में आगे की राह दिखाता है। इसकी शुरुआत बचपन से ही होती है, लेकिन आज के समय में बच्चों और साहित्य के बीच दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं। पहले गर्मी की छुट्टियों में बच्चे कॉमिक्स खरीदने की जिद किया करते थे। अखबार वाले से कहकर महीने में १ बार या १५ दिन में आने वाली कॉमिक्स का इंतजार करते थे और जैसे ही कॉमिक्स आती थी, अगले दिन ही उसे पढ़कर खत्म कर जाते थे। यहां तक कि, किराए पर कॉमिक्स खरीदकर भी पढ़ते थे। धीरे-धीरे वीडियो खेल और कम्प्यूटर खेल और मोबाइल का चलन बढ़ता गया और अब बच्चे कॉमिक्स की दुनिया से दूसरी तरफ मुड़ने लगे।

बच्चों में पुस्तक पढ़ने की आदत विकसित करने के लिए पहले माता-पिता को पढ़ने की आदत विकसित करनी पड़ेगी, क्योंकि बच्चे वही करते हैं, जो वह देखते हैं। माता-पिता अगर खुद मोबाइल में उलझें रहेंगे तो बच्चों से कैसे उम्मीद कर सकतें हैं कि वो पुस्तक पढ़ेंगे। सीधी-सी बात है कि, अभिभावकों को पहले खुद आदर्श बनना पड़ेगा।
बच्चे भविष्य की दुनिया की नींव हैं और उनके सुकोमल मन पर उनकी पाठ्यक्रम की पुस्तकों के अलावा बाल साहित्य का गहरा प्रभाव पड़ता है। बाल साहित्य बच्चों के सर्वांगीण विकास की आधार-भूमि तैयार करता है। बाल साहित्य उसकी सुकोमल जिज्ञासाओं को शांत करता है और उसे कल्पना के पंखों के सहारे उड़ना सिखाता है। बाल साहित्य के बिना न स्वस्थ बच्चे की कल्पना की जा सकती है, न स्वस्थ समाज की, इसीलिए विश्व की जितनी भी प्रमुख भाषाएं हैं, उनमें बाल साहित्य को बहुत महत्वपूर्ण स्थान मिला है। आज के तकनीकी युग में इसकी जरूरत सबसे ज्यादा है।
ऊपर से देखने पर लगता है कि आज के बच्चे व्यस्त हैं, पर सच्चाई यह है कि आज का बच्चा बहुत अकेला है। पहले संयुक्त परिवारों में बच्चे दादा-दादी, नाना-नानी से रोज कहानियाँ सुनतें थे ,वहीं उन्हें संस्कारों की प्रारंभिक शिक्षा भी मिलती थी। बड़े-बुजुर्गों द्वारा रामायण, महाभारत, हास्य कथाएँ आदि की कहानियांं सुनकर बच्चे बड़े होते थे। हर कहानी भारतीय संस्कृति के करीब खींचती थी, आदर्शों का पाठ पढ़ाती थी, सही-गलत का अंतर दिखाती थी, लेकिन तकनीक ने बच्चों को इससे और पुस्तकों से दूर कर दिया। आज एकल परिवारों में बच्चा दादा-दादी, नाना-नानी से तो दूर हो ही गया है, नौकरीपेशा माता-पिता के पास उसे देने के लिए समय नहीं है।ऐसे में अगर वह कोई अच्छी बाल कविता या कहानियों की पुस्तक पढ़ता है, तो उसे लगता है कि उसे सच ही कोई अच्छा साथी मिल गया है, और तब उसके भीतर मानो आनंद का स्रोत फूट पड़ता है।
दुनियाभर में बच्चे और किशोर हिंसक हो रहे हैं, उनकी उत्तेजना से अपराध भी बढ़ रहे हैं, ऐसे में इन्हें रोकने के लिए बाल साहित्य और पुस्तक बहुत जरुरी है। साहित्य बच्चे में न सिर्फ अच्छा और ईमानदार होने की प्रेरणा पैदा करता है, बल्कि वह अपराधियों को भी उस दलदल से बाहर निकालकर प्यार, सच्चाई, नेकी और मनुष्यता की राह पर ले आता है। अगर यह बात हमारे समाज के नीति निर्धारक ठीक से समझ लें, तो देश की तस्वीर बहुत सकारात्मक होगी।

बाल साहित्य की सभी विधाओं-कविता, कार्टून आदि का अपना आकर्षण है। वैसे, छोटे बच्चों को अपने लिए लिखी गई कविता याद करके बार-बार गाने-दोहराने में बड़ा आनंद आता है। आगे चलकर बच्चे बाल उपन्यास, नाटक, जीवनियां और ज्ञान-विज्ञान की विविध विधाओं का आनंद लेने लगते हैं। बाल साहित्य की हर विधा का अपना रस-आनंद है। बच्चे के मन और व्यक्तित्व में नई ऊर्जा और प्रेरणा भरने के लिए आइए संकल्प लें कि बच्चों को पुस्तकें भेंट करेंगे, जिससे उनकी रचनात्मकता और मौलिकता में वृद्धि हो।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

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