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तपती धरती

बोधन राम निषाद ‘राज’ 
कबीरधाम (छत्तीसगढ़)
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धरती तपती धूप से,कटते वन चहुँओर।
नहीं किसी को सुध यहाँ,बनते हृदय कठोर॥
बनते हृदय कठोर,नहीं सुध कोई लेते।
काटे वृक्ष अपार,इसे बंजर कर देते॥
कहे ‘विनायक राज’,धरा सबके दु:ख हरती।
वृक्ष लगाकर आज,बचा लो तपती धरती॥

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