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दोगली नीतियाँ और दोहरे मापदंड घातक

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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हमारे देश में दोहरे मापदंड अपनाये जाते हैं,यानी हम दोगले हैं। एक तरफ सरकार जैविक खेती के लिए प्रोत्साहित करती है,और दूसरी तरफ उर्वरक,रासायनिक औषधियों पर जोर देती है। एक तरफ शाकाहार पर बल देती है,तो दूसरी तरफ पिंक क्रांति के नाम पर मांस निर्यात में हम विश्व में पहले क्रम पर हैं,और खाने में पांचवे पर हैं। एक तरफ नदी संरक्षण की बात करते हैं,और दूसरी तरफ गगनचुम्बी भवनों के निर्माण में रेत का उपयोग करते हैं। एक तरफ कुपोषण से मर रहे हैं,और दूसरी तरफ जहर रूपी अण्डों का शालाओं में वितरण करा रहे हैं। एक तरफ भवनों की आतंरिक सुसज्जा के लिए सागवान की लकड़ी का उपयोग करना अनिवार्य है,और दूसरी तरफ वनों की कटाई पर पाबन्दी है। चिकित्सक विहीन चिकित्सालयशिक्षक और भवन विहीन शाला एवं कहीं-कहीं छात्र बिना विद्यालय चल रहे हैं। बरसात की पहली बौछार में सड़क की कलई खुल जाती है,ऐसे कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं ?
जब तक हरित क्रांति नहीं आयी थी,तब तक हम भुखमरी से मरते थे। उसके बाद रसायनों के उपयोग के कारण कैंसर,मधुमेह,हृदय रोग आदि घातक बीमारियों से मरने लगे। इसी प्रकार दुग्ध क्रांति के कारण दूध उत्पादन बढ़ा और अब जितना उत्पादन नहीं उससे अधिक खपत होने से आज देश में नकली दूध की नदियां बह रही हैं। आर्थिक तंगी के कारण और अपनी गरीबी दूर करने के लिए सरकार जानवरों की हत्या करके मांस निर्यात कर रही है,और दूसरी तरफ गौशालाओं का निर्माण का नाटक कर रही है। जिस देश में आर्थिक उन्नति मांस के निर्यात से होगी, उसका भविष्य अंधरकारमय और हिंसाजन्य होगा।
कितनी भी सेना,सुरक्षा बल बढ़ा लो,पर हिंसा,आतंकवाद रुक नहीं सकता, कारण हिंसा का हिंसा नहीं,अहिंसा है,पर सरकारें दोगले चरित्र का पालन करके मात्र छलावा करती हैं, और अंत में दुःख ही झेलना पड़ते हैं।
आईपीसीसी की रिपोर्ट का साफ इशारा यह है कि हमें अपनी जीवन-पद्धति बदलनी होगी। यह तभी संभव है जब हम यह मानने को तैयार हों कि जिसे हम विकास समझ रहे हैं,hवह एक मायने में विनाश है। संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतर-सरकारी समिति (आईपीसीसी) ने जलवायु परिवर्तन और भूमि संबंधी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि दुनिया को घेर रही इस स्थायी प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए जीवाश्म-ईंधन से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को रोकना ही काफी नहीं है। इसके लिए खेती में बदलाव करने होंगे,शाकाहार को बढ़ावा देना होगा और जमीन का इस्तेमाल सोच-समझकर करना होगा। रिपोर्ट के अनुसार विश्व में २३ फीसदी कृषि योग्य भूमि का क्षरण हो चुका है,जबकि भारत में यह हादसा ३९ फीसदी भूमि के साथ हुआ है। जमीनों का रेगिस्तानीकरण जारी है। जलवायु परिवर्तन के कारण पैदावार में गिरावट आ रही है,और खाद्य पदार्थों में पोषक तत्व कम होते जा रहे हैं। इससे खाद्य सुरक्षा बुरी तरह प्रभावित होगी। अनुमान है कि २०५० तक खाद्य वस्तुओं की कीमतें २३ प्रतिशत तक बढ़ जाएंगी।
हम जहां तक पहुंच चुके हैं,वहां से एकाएक पीछे लौटना मुमकिन नहीं,पर विकास की दिशा बदली जा सकती है, उसकी रफ्तार घटाई जा सकती है। यह रिपोर्ट जो कह रही है,पहले वही बात दूसरी रिपोर्टों ने भी कही है। भूमि की बर्बादी को लेकर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की एक रिपोर्ट में भी भारत के कुल भूमि क्षेत्र का लगभग ३० फीसदी हिस्सा मरुस्थल बन जाने की बात २ साल पहले आ चुकी है।
अभी आईपीसीसी रिपोर्ट में आए सुझावों पर अमल शुरू किया जा सके तो थोड़ी राहत मिल सकती है। इसके मुताबिक बिना जुताई वाली खेती और खाद के सीमित-लक्षित उपयोग से २०५० तक कार्बन उत्सर्जन में १८ फीसदी की कमी की जा सकती है। अगर हम खानपान में साग-सब्जियां बढ़ाएं और लाल मांस का इस्तेमाल घटा दें तो उत्सर्जन में एक तिहाई कमी मुमकिन है। इन रिपोर्ट पर सरकार गंभीरता से पालन करे तो ठीक है,नहीं तो परिणाम और भयावह होंगे।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

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